ॐ भगवद्गीता-विचार। ® - . इस प्रश्नका विचार दीक्षितके प्रसिद्ध परन्तु वैदिक-काल और वेदाङ्ग-काल- अन्यकी सहायतासे, ऐतिहासिक रीतिसे में एक और बड़ा फ़र्क यह है कि वैदिक- किया जायगा। वैदिक साहित्यमें ऋतुओ- कालमें चैत्र, वैशाख श्रादि महीनोंके नामों- का निर्देश सदा वसन्तसे होता है। ये का अस्तित्व ही न था। ये नाम वेदाङ्ग- ऋतुएँ थीं। कहीं कहीं पाँच ऋतुओका भी कालमें अस्तित्व में आये दिखाई देते हैं। निर्देश है । शतपथ-प्रालणमें इसका कारण वैदिक कालमें मधु, माधव, शुक, शुचि स्पष्ट बताया है कि अन्तिम दो ऋतुएँ नाम वसन्तके क्रमसे प्रचलित थे। मासो- शिशिर और हेमन्त एक मान ली गई हैं। के पर्याय-याची ये नाम तो अभीतक रोमन लोगोंके पूर्व इतिहाससे भी ज्ञात संस्कृत ग्रन्थों में हैं, पर वे नाम अधिकतर होता है कि जब आर्य लोग हिमालयके नहीं पाये जाते । चैत, बैसाख आदि नाम उत्तरमें रहते थे, तब वे वर्षके दस ही मुख्यतः वैदिक कालके इस ओरके साहित्य- मास मानते थे; क्योंकि दो मासतक सूर्य- में पाये जाते हैं। दीक्षितकी ज्योतिर्विष- का पता बिलकुल नहीं मिलता था। ऐसा यक गणनासे मालूम होता है कि ये नाम दिखाई देता है कि प्राचीन वैदिक-कालमें ईसवी सनके पूर्व २००० वर्षके लगभग उत्तरायण वसन्तके सम्पातसे ही माना ' प्रचलित हुए। वैदिक ग्रन्थोंके प्रमाणसे जाता होगा, क्योंकि जब सूर्य क्षितिजके भी यही बात पाई जाती है। वेदाङ्ग- ऊपर आता था, तभी मुष्टिमें गति : ज्योतिष, पाणिनि-कल्पसूत्र आदि ग्रन्थों में होती थी और मनुष्योंको आनन्द होता ये ही नाम दिये गये हैं । दीक्षितकी गिनती-- था । अर्थात् , दो मासतक सूर्यके बिलकुल से वेदाङ्ग ज्योतिषका काल ई० स०से अस्त हो जानेके अनन्तर और अत्यन्त १४०० वर्ष पूर्व निश्चित होता है। अब शीतके समाप्त होने पर पार्योको प्रफुल्लता शतपथ ब्राह्मण के उत्तर-कागडमें बैसाखका तथा जीवनी-शक्ति प्राप्त होती थी। इससे नाम एक बार आया है। दी० ज्योतिष- स्वभावतः वैदिक कालमें यही मानते होंगे शास्त्रका इतिहास पृ०१३०) ११वें काण्डसे कि वर्षका प्रारम्भ वसन्त-ऋतुसे होता श्रागेके ये उत्तरकाण्ड पीछे बने हैं। पहले है। यह काल हिमालयके उस पारकी दस कागडोंमें ये नाम बिलकुल नहीं पाये बहुत प्राचीन बस्तीका होगा। परन्तु जब जाते : मधु, माधव नाम ही पाये जाते मार्य लोग हिन्दुस्थानमें ा बसे और हैं: और शतपथके इस वचनसे कि ज्योतिष शास्त्रका अभ्यास भी बढ़ा, तब कृत्तिका ठीक पूर्व में निकलती है दीक्षित. यह परिस्थिति बदल गई । सूर्य वर्ष भर ने शतपथका काल ई० स० ३००० वर्ष क्षितिज पर ही रहने लगा और उसका पूर्व बेधड़क निश्चित कर दिया है। अर्थात् उदय स्थान उत्तरसे दक्षिणकी ओर तथा गणितसे निकाला हुआ उनका यह दक्षिणसे उत्तरकी ओर बदलने लगा। सिद्धान्त ठीक है कि ई० स० ३००० वर्ष उस समय वसन्तकेसम्पातसे उत्तरायण- पूर्व शतपथ-काल और १४०० वर्ष पूर्व का प्रारम्भ न मानकर ज्योतिषियोंने वेदाङ्ग ज्योतिष-कालके बीचमें मार्गशीर्ष, उत्तरायणकी गणना तब शुरू की जब सूर्य पौष आदि नाम प्रचलित थे। दक्षिणसे उत्तरकी ओर घूमने लगता था। 'मासानां मार्गशीर्षोऽहं' वाक्यसे यह काल वेदाङ्ग ज्योतिषमें दिखाया यह सिद्धान्त निकालने में कोई आपत्ति गया है। नहीं कि भगवद्गीता ब्राह्मण-ग्रन्थोंके
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