पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/६०१

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से भगवद्गीता-विचार। हमारी रायमें यह है कि हम अाजकलकी लेकर मनुकी संख्या बैठावे तो चौदहके धारणाले इसका अर्थ करना चाहते हैं। सिवा दूसरा अङ्क जमता ही नहीं। यह इस ओर ध्यान दिलायेंगे कि भाज- उदाहरण द्वारा प्रत्यक्ष देख सकते हैं। कलकी धारणा क्या है। यह हम देख चुके हमें इस बातका निर्णय करनेकी कोई हैं कि पहले कल्प अर्थात् सहस्त्र युगकी आवश्यकता नहीं कि चौदह मनुकी कल्पना भगवदीता तथा यास्कके निरुक्त- कल्पना गणितके कारण प्रकट हुई या यह में है। ऐसा मान लिया गया था कि धार्मिक कल्पनाका हो फल है। हाँ, इस सृष्टिकी उत्पत्तिसे लयतक ब्रह्माका एक सम्बन्धमें यह निश्चयपूर्वक कहा जा दिन होता है और उसकी मर्यादा हजार | सकता है कि चौदह मनुकी यह कल्पना चतुर्युगकी है। मनुस्मृतिमें यह कल्पना है मनुस्मृतिके पहले कहीं नहीं मिलती. कि इन हजार युगोंमें १४ मन्वन्तर होते परन्तु, यह कल्पना बहुत प्राचीन है हैं । चौदह मनुकी कल्पना महाभारतमें कि एक कल्पमें या वर्तमान सृष्टिमें एक- भी स्पष्ट गीतिसे नहीं दी गई है। परन्तु से अधिक मनु हैं। उसकी प्राचीनता महाभारतके पश्चात् तुरन्त बनी हुई मनु- ऋग्वेद-कालीन है। ऋग्वेदमें तीन मनुके स्मृतिमें वह पाई जाती है। मनुस्मृतिमें नाम आये हैं। ये नाम वैवस्वत, साव- होनेसे उसका धार्मिकत्व मान्य हो गया रणि और सावर्ण्य हैं। पहले दो नाम और भारतीय आर्य ज्योतिषकारोंने उसका ऋग्वेदके आठवें मगडलके ५१, ५२ सूक्त- स्वीकार कर लिया। सिर्फ आर्यभट्टने में लगातार आये हैं। वे बालखिल्यमें हैं उसका स्वीकार नहीं किया। उसके युगों- और उनके कर्ता कागव ऋषि श्रुष्टिगु की मनुकी और कल्पकी कल्पना मनु- और श्रायु ये दो हैं। पहले सूक्तकी पहली स्मृतिसे भिन्न होनेके कारण अन्य सब आर्य ऋचा यह है- ज्योतिषकारोंने उसे दोष दिया है, और यथा मनो सावरणो सोममिंद्रापिवः एक मत हो यह ठहरा दिया है कि उसका : सुतम् । नीपातिथौ मघवन् मेन्यातिथौ ग्रन्थ धर्म-विरुद्ध है (शङ्करादि-भारती पुष्टिगौ श्रृष्टिगो तथा ॥ ज्यो० पृ० १६३) अर्थात् यह चौदह मनु- इसमें जो कुछ कहा गया है वह की कल्पना धार्मिक है। इसलिए भार- सावरणि मनुके समयका है। आगामी तीय-ज्योतिषको उसका स्वीकार करना सूक्तमें प्रारम्भमें ही पहली ऋचामें- पड़ा । वास्तविक कल्प या युगको यथा मनो विवस्वति सोमं शकापिवः कल्पनाके सटश उसमें गणितको सुग- सुतम् । यथा त्रितेछन् इन्द्रजुजोषस्यायो मता नहीं है। क्योंकि चौदह मन्वन्तर मादयसे सचा ॥ माननेसे १००० युगोंमें बराबर भाग नहीं इस प्रकार विवस्वानके पुत्र मनुका लगता और ६ युग (चतुर्युग ) शेष रहते । उल्लेख है। ऋग्वेदके दसधै मण्डलके हैं। तथापि यह भी मान सकते हैं कि इस ६२ वे सूक्तकी एक ऋचामें तीसरे मनु- कल्पनाको गणितका ही आधार होगा, का नाम सावर्ण्य पाया है और दूसरी क्योंकि दो युगोंके बीचमें जैसे संधि और ऋचामें सावर्णि पाया है। ये दोनों नाम संध्यंश मान लिये हैं वैसे ही मन्वन्तरीके : एक ही के हैं। "वैदिक इन्डेक्स" में मनु बीचमें संध्यंश मानना उचित है। ऐसा शब्दके नीचे उपर्युक्त पादटीका दी गई मानकर यदि गणितके द्वारा संध्यंश है और इस पर मेकडानलका मत है कि