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महाभारतमीमांसा

- ॐ महाभारतमीमांसा * पुकार की थी उसमें कृष्ण गोपी कि महाभारत-कालमें यानी ईसवी सन्के जनप्रिय स्पष्ट संबोधन है। इसी प्रकार ३०० वर्ष पूर्व भरतखण्डमें लोग इस मागे सभापर्वमें भी शिशुपालने अपने बातको अच्छी तरह जानते थे कि गोकुल बधके समय- और मथुराका श्रीकृष्ण तथा द्वारकाका गोपं संस्तोतुमिच्छसि । श्रीकृष्ण एक ही है। सारांश ऐतिहासिक दृघिसे भी यह कल्पना गलत है कि यद्यनेन हतो बाल्ये शकुनिश्चित्रमत्र किम। नोवाश्ववृषभौ भीष्म यौ न युद्धविशारदी॥ CICI मूलतः तीन श्रीकृष्ण थे और ईसवीसन्के पश्चात् उनका एकीकरण हो गया । हम इत्यादि श्लोकोंमें (१०४१) श्रीकृष्ण- : आगे यह बतलानेवाले हैं कि कुल तत्व- की गोपस्थितिकी उन बाललीलाओंका शान या नीतिको दृष्टिसे भी तीन विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है जो उन्होंने | श्रीकृष्ण माननेकी आवश्यकता नहीं है। गोकुलमें की थीं । अर्थात् यह बात | इसमें सन्देह नहीं कि भगवद्गीतामें जिस निर्विवाद है कि महाभारत-कालमें, यानी श्रीकृष्णके मत प्रतिपादित है वही श्रीकृष्ण ईसाई सन्के ३०० वर्ष पूर्वके लगभग, | भारत और हरिवशंमें वर्णित है और वही गोकुलके श्रीकृष्णचरित्रकी सब कथाएँ मथुरा तथा द्वारकाका श्रीकृष्ण है। भरतखंडमें प्रचलित थीं । फिर यह ' , और, इसी श्रीकृष्णके मत भगवगीतामें कथन कैसे सत्य हो सकता है, कि | व्यासजीकी आर्ष दिव्य एवं बलवनी ईसाके बाद भाभोर लोग ईसाके धर्ममेसे बाणीसे प्रतिपादित किये गये हैं। इन कथाओको इधर लाये ? नारायणीय हमारे अबतकके विवेचनसे यह बात उपाख्यानमें भी यह बात स्पट रीतिमे !

पाई गई कि भगवद्गीता प्रथमे इतितक

आ गई है कि, गोकुलसे मथुरामें आकर एक सम्बद्ध ग्रन्थ है, वह किसी एक कंसको मारनेवाला श्रीकृष्ण और पांडवो- अलौकिक बुद्धिमान कविका अर्थान् व्यास की सहायता करके जरासंध तथा वा वैशंपायनका बनाया है, वह प्रारंभसे दर्योधनको मरवानेवाला श्रीकृष्ण एक हीभारत ग्रन्थका भाग जानकर तैयार ही है। शान्ति पर्वके ३३६ वें अध्यायम किया गया था और जब सौतिने अपने दशावतारोंका वर्णन है। वहाँ श्रीकृष्णा- महाभारतकी रचना की, उस समय वह वतारके विशिष्ट कृत्योंका विस्तारपूर्वक ! ज्योका त्यों उसके सामने उपस्थित था। कथन किया गया है । और, पहले कहा, इसी प्रकार उसमें, श्रीकृष्णके उदात्त गया है कि "मथुराम में ही कसको तत्वज्ञानका प्रतिपादन प्रचलित तत्वज्ञान मारूँगा।" इसके बाद द्वारकाकी स्थापना, । सहित किया गया है। श्रीकृष्णके पश्चात् जरासंधका बध इत्यादि अवतार-कार्योंका. कायाा उसके ईश्वरत्वको पूर्णतया माननेवालोंने वर्णन किया गया है। पूज्य धर्म-ग्रन्थके नामसे इस ग्रन्थको द्वापरस्य कलेश्चैव संधौ पर्यावसानिके। तैयार किया है। इस ग्रन्थका पठन और प्रादुर्भावः कंसहेतोर्मथुरायांभविष्यति ॥ श्रवण ज्ञानेच्छु पुरुषोंके लिए बहुत ही तत्राहं दानवान हत्वा सुबहन देवकण्टकान्। लाभदायक है और इसी दृष्टिसे उसकी कुशस्थली करिष्यामि निवेशं द्वारका रचना की गई है। व्यासजीने इस ग्रन्थको पुरीम् ॥१०॥ मंसारके सन्मुख रखते हुए यह इशारा