ॐ भगबतीता-विचार । * यमने खतन्त्र तथा अत्यन्त पवित्र समझ- थे, उसी प्रकार यह भी माना जा सकता कर यहाँ रखा है। है कि श्रीकृष्ण और अर्जनके भाषलया व्यामजी श्रीकष्णमतका प्रति- सम्वादको जिस रूपमें व्यासने संजयके मुखसे प्रकट किया है, उसी रूपमें श्रीकृम्स- पादन करते हैं। का भाषण अथवा वाक्य था । हमारी राय- हम कह सकते हैं कि भगवद्गीता-पर्व में यह प्रश्न अनुचित है कि भगवद्गीतामें एक अत्यन्त पूज्य तत्वज्ञान विषयक भाग प्रत्यक्ष श्रीकृष्णके ही शब्द हैं या नहीं। है, उसे व्यास या वैशंपायनने अपने भारत- ये शब्द श्रीकृष्ण के न हों, तथापि निस्सन्देह प्रन्थमें स्थान दिया है और उसमें श्रीकृष्ण- ये व्यासके हैं। श्रीकृष्णके मतका तात्पर्य के विशिष्ट मतोका या व्यास मतोंका यद्यपि व्यासके शब्दोंसे वर्णित हुआ है, प्राविष्कार किया गया है। स्पष्ट है कि तथापि इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्री- यह प्रन्थ पूज्य है और प्रारम्भसे यही कृष्णके मतके अनुकूल ही यह सब विषय माना गया है कि मोक्षेच्छु या भगवद्भक्तोंके यहाँ प्रतिपादित किया गया है। यह विषय पठन करने योग्य है। यह भी निर्विवाद सब कालमें पठन और मनन करने है कि इसमें श्रीकृष्णकी भक्ति पूर्णतया योग्य हो, इसलिए यदि व्यासने उसे रम्य प्रतिपादित है और उनका ईश्वरांशत्व पूरा स्वरूप दे दिया, तो आपत्ति किस बातकी दिखलाया गया है। इसके वाक्य यदि है ? सारांश, मानना होगा कि इस दृष्टिसे प्रत्यक्ष श्रीकृष्णके मुखके न हो तथापि वे | बाइबिल और भगवद्गीताकी परिस्थिति व्यासके मुखके हैं। यह कोई नहीं कह समान है। दोनों ग्रन्थ धार्मिक दृष्टिसे ही सकता कि रण-क्षेत्रमें प्रत्यक्ष श्रीकृष्णने तैयार किये गये हैं। ईसाके ईश्वरत्वके किन शब्दोंका उपयोग किया था। महा- सम्बन्धमें जिनका विश्वास है, ऐसे लोगों कविके सम्प्रदायके अनुरूप व्यासजीने के लिए उसके उपदेशका सार, भिन्न संजयकोरण-भूमि पर अपना एक सम्बाद. भिन्न प्रसंगोंके उसके भाषणों सहित, दाता (वार करेस्पांडेंट) बना लिया है और उसके मतानुयायियोंने कई वर्षोंके बाद उसीसे युद्धका सब हाल इस युक्तिसे उसके पश्चात् प्रथित किया है और अपने कहलाया है कि मानो प्रत्यक्ष देखा ही हो। धर्म-ग्रन्थको तैयार किया है (सेंट ल्यूक्का यद्यपि वह काल्पनिक माना जाय, तोभी प्रारम्भ देखिए) । इसी प्रकार, श्रीकृष्णके यह मान लेनेमें कोई आपत्ति नहीं कि । ईश्वरत्वके विषयमें उनके जिन भक्तोंको श्रीकृष्णके मत भगवद्गीतामें बतलाये हुए कुछ भी सन्देह न था उन्होंने, अर्थात् व्यास, मतोंके सदृश थे। यह निश्चय-पूर्वक मानने- वैशंपायन महर्षियोंने, अपनी दिव्य वाणी- के लिए क्या आधार है, कि बाइ बिलमेंदिये से यह धार्मिक ग्रन्थ तैयार किया है; और हुए ईसाके वाक्य प्रत्यक्ष उसीके मुखसे श्रीकृष्णके पश्चात् कई वर्षों के बाद जब निकले थे? उसके शिष्य भी इस बातका भारत-ग्रन्थ तैयार हुआ तब उन्होंने उसके वर्णन नहीं करते; किन्तु उसके प्रशिष्य मध्य भागमें भगवद्गीताके रूपमें उसे सेंट्जान, सेंट ल्यूक, सेंट मार्कादि उसके स्थान दिया और उसमें कर्म-अकर्म सम्बन्धी वचनोको कहते हैं। और जिस प्रकार अत्यन्त महत्वके प्रश्न पर, सब प्रचलित वह मानने में कोई आपत्ति नहीं होती कि तत्वज्ञानोका आश्रय लेकर, श्रीकृष्णके उनके ये वचन ईसाके ही कहे हुए वचन मुखसे ही विचार कराया है।
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