- D - ® भगवनीता-विचार । विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि नहीं देख पड़ती। कुछ लोगोंका कथन है भारती-युद्धके पहले दिन, युद्धके पहले कि भगवद्गीता यहाँसे अलग कर दी जाय हो, श्रीकृष्ण और अर्जुनने तत्वज्ञान- तो भी कुछ हानि नहीं। परन्तु यह कथन विषयक चर्चामें घण्टा या सवा घण्टा तो प्रत्येक उपाख्यानके लिए भी चरितार्थ व्यतीत कर दिया, तो कोई असम्भव हो सकता है। सारांश, इस आक्षेपमें कुछ बात नहीं। भी स्वारस्य नहीं है। हाँ, यह प्रश्न महत्व- का और विचारणीय है कि, भगवद्गीता भगवद्गीता अप्रासंगिक नहीं है। अर्थात् उसमें प्रतिपादित वाद-विवाद अच्छा : मान लिया जाय कि इतने प्रासङ्गिक है या नहीं ? हमाग मत है कि बड़े सम्भाषणका युद्ध भूमि पर होना व्यासजीने इस तत्वज्ञानको बड़ी ही चतु- सम्भव था: तथापि कुछ लोगोंका कथन राईसे युद्धके प्रारम्भमें ही स्थान दिया है। है कि वह अप्रासंगिक है । कुछ लोगोको जहाँ लाखों आदमी मरने और मारनेके कल्पना-तरङ्गे तो यहाँतक पहुँची है कि, लिए तैयार हुए हो, वहाँ सम्भव है कि भगवद्गीता महाभारतमें प्रक्षिप्त है । परन्तु : धार्मिक हृदयकं मनुष्यको सचमुच एक यह श्राक्षेप भी निरर्थक है । भगवद्गीताका प्रकारका मोह हो जाय । आश्चर्य नहीं कि प्रक्षिप्त होना किसी प्रकार दिखाई नहीं ; उसे सन्देह हो जाय कि-'मैं जो कुछ कर पड़ता। यह बात भी देख नहीं पड़ती रहा है वह उचित है याअनुचित' हमारी कि इस ग्रन्थमें आगे या पीछे कहीं किसी रायमें भगवद्गीताके प्रारम्भमें गीताको प्रकारसे कोई सम्बन्ध खगिडत हो गया , अर्जुनविषाद-योगका जो सिंहासन दिया हो । भगवद्गीताके पूर्व महाभारतका गया है वह सचमुच बड़ा ही मार्मिक है। अन्तिम श्लोक यह है :- क्या इस छोटेसे राज्य-सम्बन्धी आपसके उभयोः सेनयो राजन् तुच्छ झगड़े का फैसला करनेके लिए भीष्म महानव्यतिकरी-भवत्। और द्रोणके सदृश अपने पूज्य पितामह अन्योन्यं वीक्षमाणानां । और गुरुको तथा शल्य आदिके समान ____योधानां भरतर्षभ ॥ दुसरे सन्मान्य बन्धुओको जानसे मार और गीताके बादके अध्यायका पहला डाले-क्या अपने ही पुत्र-पौत्रोंको मरवा श्लोक यह है:- । डाले? यह प्रश्न जिस प्रकार बन्धु-प्रेमका ततो धनंजयं दृष्ट्वा बाणगांडीवधारिणम्। है, उसी प्रकार राज्य-सम्बन्धी महत्त्वका पुनरेव महानादं व्यसृजंत महारथाः ॥ भी है। यह बात निश्चित है कि अंग्रेजीमें भगवद्गीताके पहले हो अध्यायमें कहा जिसे 'सिविल वॉर' कहते हैं वह मापस. है कि, श्रीकृष्ण और अर्जुन रथमें बैठकर में एक दूसरेका गला काटनेका ही युद्ध सेनाओंके बीचके मैदानके मध्य भागमें जा होता है। ऐसे युद्ध में स्वजनोंका ही नाश खड़े हुए। इसके बाद, जब सम्भाषण पूरा होता है। इसलिए, जिस अर्जुनको 'धर्म- हो गया और वे पाण्डवोंकी सेनामें शील' कहा गया है उसके मनमें इम लौट आये, तब सारी फौजने सिंहनाद विचारोसे मोहका हो जाना अत्यन्त किया, (यह वर्णन गीताके बाद के अध्याय- स्वाभाविक है कि, यदि लोभी और हठी के उपर्युक्त श्लोकसे पाया जाता है)। दुर्योधनके ध्यानमें यह बात नहीं पाती तो ऐसी दशा में यहाँ तो कुछ भी असम्बद्धता कोई हर्ज नहीं, परन्तु हमें चाहिए कि हम
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