मिन्न मतोंका इतिहास । ५५५ 3- घर शुभ्र देहके देदीप्यमान महादेव बैठे अव्यय और अनन्त बतलाये गये हैं। अर्थात हैं। उनके गलेमें जनेऊ है; उनकी अठारह वे अन्तिम हैं। इसमें प्रथम देवस्यका शंकर भुजाएँ और तीन नेत्र हैं: हाथमे पिनाक अर्थ लेना ठीक होगा। और विष्णोदने धनुष्य और पाशुपत अस्त्र है तथा त्रिशूल बार पाया है : इसलिये प्रथम पांचरात्र- है; त्रिशलमें लिपटा हुप्रा साँप है: एक मतका स्थान समझना चाहिए । ब्रह्मा- हाथमें परशुरामका दिया हुआ परशु है। णस्य यानी ब्रह्म देवका और शेष यानी दाहिनी ओर हंस पर विराजमान ब्रह्माजी . नाग लोक समझना चाहिए । टीकाकार- हैं और बाईं ओर गरुड़ पर शंखचक्र- का कहना है कि नरस्यका अर्थ जीवख गदाधारी नारायण विराजे है । सामने है और उसका अभिप्राय है कि यह मत मयूर पर हाथमें शक्ति और घंटी लिये सांख्यका है। परन्तु ऐसा जान पड़ता है स्कंद बैठे हैं।" इस प्रकार शंकरका सगुण कि सांख्य मतके अनुसार कोई अलग लोक रूप-वर्णन यहाँ दिया है । ऐसा वर्णन ' ही नहीं है । परमस्य विष्णोः पदसे ब्रह्म- है कि इन्द्रने शतरुद्रिय कहकर उसका स्वरूपी परमात्मा विष्णुका अर्थ लेना स्तवन किया है। शंकरके अवतारीका महा- चाहिए और यह खान गीता-वचन 'तडा. भारतमें कहीं वर्णन नहीं है। शंकरन जो मगरमं मम' में बतलाया हश्रावेदान्तियों त्रिपुरदाह किया उसका वर्णन बारबार का है। यह श्लोक कृटके सहश है । यदि प्राता है। "हे महादेव, तेरे सात तत्व उसे एक तरफ रने तो भी पाशुपतके (महत् , अहंकार और पंचतन्मात्रा) और परमस्थानका उल्लेख यहाँ या अन्यत्र नहीं छः अंगोको यथार्थ जानकर तथा यह है। महाभारतम इस बातका वर्णन नहीं जानकर कि परमात्माका अभिन्न स्वरूप पाया जाता कि पाशुपत-मतके अनुसार सर्वत्र व्याप्त है, जो तेरा ध्यान करता है मुक्त जीव कौनसी गतिको कैसे जाता है। वह तुझमें प्रविष्ट होकर सायुज्य मुक्ति प्राप्त कुछ उल्लेखोस हम यह मान सकेंगे कि करता है ।” पाशुपत-तत्वज्ञानका इससे : कदाचित् वह कैलासमें शंकरका गल अधिक ज्ञान महाभारतमें नहीं मिलता। होता है और वहाँसे कल्पांतमें शंकरके यही मानना पड़ता है कि बहुधा महा- साथ मुक्त होता है । पहले अवतरणसे भारतकार सौतिने नारायणीयके समान देख पड़ेगा कि पाशुपत मतमें संन्याससे पाशुपत-मतके सम्बन्धमें, उस समय एक सीढ़ी बढ़कर प्रत्याश्रमी मान लिये स्वतंत्र आख्यान या ग्रन्थके उपलब्ध न गये हैं । आजकल सब मतोंमें प्रत्या- होनेके कारण, महाभारतमें इससे अधिक श्रमी माने जाते हैं: परन्तु दक्षके पाशुपत धर्णन नहीं दिया। व्रतमें उनका जैसा उल्लेख है, धैसा पहले कुछ लोगोंने शंकरका स्थान केलास रुद्रप्रयान श्वेताश्वतर उपनिषदमें प्राताहै। और विष्णुका वैकुंठ कहा है: परन्तु ये तपः प्रभावादेव प्रसादाच ब्रह्म ह श्वेता- नाम मूलमें नहीं हैं, टीकासे लिये गये श्वतरोऽथ विद्वान् । प्रत्याश्रमिभ्यः परमं है। मूल श्लोक यहाँ देनेके योग्य है। पवित्रं प्रोवाच सम्यगृषिसंघजुष्टम् ॥ ततोऽव्ययं स्थानमनन्तमेनि देवस्य विष्णो- पाशुपत-मत सब वोको समान मोक्ष रथ ब्रह्मणस्य । शेषस्य चैवाथ नरम्य चैव देनेवाला है, इससे बहुधा नीचेके वर्समें यचापि॥६०॥ इस मतक सान्ति पर्वके २८० में अध्यायमें ये स्थान अनुमान है कि पाशुपत मत केवल द्विजों चय na. वापरम मतकअधिक अनुयायी होग। हमारी
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