- भिन्न मतोंका इतिहास । ॐ
सीने पांचरात्र विधिसे नारायणकी पूजा यह किया था उसमें पशु-वध नहीं हुना। की। चित्रशिखण्डी नामके सप्त ऋषियों- वसु राजाके शापकी जो बात आगे दी है, ने वेदोका निष्कर्ष निकालकर पांचरात्र केवल वह इसके विरुद्ध है। ऋषियों के मामका शाखा तैयार किया। ये सप्तर्षि और देवोंके झगड़ेमें छागहिंसाके यश लायंभुव मम्वन्तरके मरीचि, अङ्गिरा, सम्बन्धमें जब वसुसे प्रश्न किया गया, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ तब उसने देवोंके मतके अनुकूल कहा हैं। इस शास्त्रमें धर्म, अर्थ, काम और कि छागबलि देना चाहिए । इससे मोक्ष चारोंका विवेचन है। यह ग्रन्थ एक ऋषियोंका उसे शाप हुआ और वह लाख श्लोकोंका है। "ऋग्वेद, यजुर्वेद, भूविवरमें घुसा । वहाँ उसने अनन्य सामवेद तथा अङ्गिरा ऋषिके अथर्ववेद- . भक्तिपूर्वक नारायणकी सेवा की जिससे के आधार पर इस प्रन्थमें प्रवृत्ति और वह मुक्त हुआ और नारायणकी कृपासे निवृत्तिके दोनों मार्ग हैं और उनका यह "ब्रह्मलोकको पहुँचा" । वसु राजाके प्राधारस्तम्भ है।" नारायणने कहा कि नामसे यज्ञमें घीकी धारा अग्निमें छोड़नी हरि-भक वसु उपरिचर राजा इस ग्रन्थ-पड़ती है। कहा है कि देवोंने प्राशन को वृहस्पतिसे सीखेगा और उसके अनु- करनेके लिए उसे वह दिलाई, और यह भी सार चलेगा, परन्तु उसके पश्चात् यह कहा है कि उसे “वसोर्धारा" कहते हैं। प्रन्थ नष्ट हो जायगा।" अर्थात् चित्र- यही कथा अश्वमेध पर्वके नकुलाख्यानमें शिखण्डीका यह प्रन्थ आजकल उपलब्ध आई है और वहाँ उसका यही स्वरूप है। नहीं है। तथापि भगवद्गीता इस मतके फिर आश्चर्य तो यही होता है कि पांच- लिए मुख्य आधार नहीं मानी गई: अतः रात्रमतका वसु राजा ही प्रथम कैसे एव हमें यह स्वीकृत करना पड़ता है कि होता है। वर्णन तो ऐसा है कि उसने यह पांचरात्र-मत भगवद्गीताके पश्चात् खतः जो यज्ञ किया वह पशुका नहीं था। दुमा और उससे कुछ भिन्न है। अस्तु । हिंसाको यज्ञविहित बतलानेके इस भागमें पहली कथा यह है कि विषयमें गीता और महाभारत दोनोंका क्षीरसमुद्रके उत्तरकी ओर श्वेत द्वीप है स्पष्ट श्राशय नहीं है। अर्थात् यह भग- जहाँ नारायणकी पांचरात्र-धर्मसे पूजा वद्गीताके आगेकी सीढ़ी है। करनेवाले श्वेतचन्द्रकान्तिके "अतीन्द्रिय, इसके प्रागेके अध्यायोंमें यह वर्सन निराहारी और अनिमेष, लोग हैं। वे है कि नारद नारायणका दर्शन करनेके एकनिष्ठासे भक्ति करते हैं और उन्हें लिए श्वेतद्वीपमें गये और वहाँ उन्होंने नारायणका दर्शन होता है। इस श्वेत- . भगवान्के गुह्य नामोसे उनकी स्तुति द्वीपके लोगोंकी अनन्य भक्तिसे नारायण ! की । ये नाम विष्णु-सहस्र-नामोसे भिन्न प्रकट होते हैं और ये लोग पांचरात्र हैं। पांचरात्र-मतमे भी नारदकृत स्तुति विधिसे उनका पूजन करते हैं। कहनेकी विशेष महत्वकी होगी। नारायण प्रसा भावश्यकता नहीं कि यह मत गीतासे : हुए और उन्होंने नारदको विश्वरूप अधिक है। दूसरी बात यह है कि दिखाया। इस रूपका वर्णन यहाँ देने अहिंसा मत भी इस तत्वज्ञानके द्वारा योग्य है। “प्रभुके स्वरूपमें भिन्न भिन्न सांप-योगादि अन्य मतोंके समान ही रङ्गोंकी छटा थी। नेत्रहस्तपादादि सहन प्रधान माना गया है। वसु राजाने जो थे । वह विराट-स्वरूपका परमात्मा