® भिन्न मतोंका इतिहास । ॐ ५४१ कहा है कि भिन्न भिन्न देवताओंके लोक पाते। ऐसा वर्णन है कि "न कल्प- हैं। छान्दोग्यमें लिखा है कि- "एतासा- परिवर्तेषु परिवर्तन्ति ते तथा" मेव देवतानां सलाकतां सार्टिताम् देवानामपि मौद्गल्य कांचिता सा सायुज्यं गच्छति।" परन्तु यह माना गतिः परा।" परन्तु कहा है कि इसके जाता था कि ब्रह्मलोक अपुनरावर्ति है। आगे विष्णुका स्थान है-"ब्रह्मणः याज्ञवल्क्यने कहा है कि-"गाग्यि ब्रह्म-सदनादचं तद्विष्णोः परमं पदं । लोककेागेका हाल मत पूछ'-"अनात शुद्धं सनातनम् ज्योतिः परब्रह्मेति प्रश्न्यां वै देवतामतिपृच्छसि” (बृ. यद्वितः ।" उपनिषद् परब्रह्मवाची अ०५ ब्रा०६)। बृहदारण्यकमें तो (अ० शब्द आत्मा है, और आत्मा और पर- - वा० २) यह कहा है कि-"वैद्युतान् मात्माका भेद उपनिषदोंको मालूम नहीं। पुरुष मानस एत्य ब्रह्मलोकान् “य प्रात्माप गमयति तेषु ब्रह्मलोकेषु पराः परा- देखिये । योगमें दो आत्मा माने गये, इसी लिए पहले यह भेद उत्पन्न हुआ । वता वसान्त न तषा पुनरावृत्तिा"। भगवद्गीता और महाभारतमें इसी लिए उपनिषद्म प्रजापति-लोक और ब्रह्म- परमात्मा शब्द सदैव परब्रह्मके अर्थमें लोक अलग अलग माने गये थे । भग- प्राया है। इस प्रकार ब्रह्म भी दो प्रकार. वनीता और महाभारतमें यह एक स्वरसे का (शब्दब्रह्म और परब्रह्म) हो जानेसे माना गया है कि ब्रह्मलोक पुनरावर्ति है। परब्रह्म शब्द बहुत बार उपयोगमें पाया भाब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्ति- है। उपनिषद्म पुरुष शब्द परमात्मवाची नोर्जन" इस मतके अनुसार यह निश्चय है। वैसा ही महाभारतमें भी है। परन्तु हुश्रा था कि ब्रह्मलोककी गति शाश्वत: कहीं कहीं परम पुरुष शब्द आता है। नहीं है। योगी और जापक वहीं जाते। महद्भूत शब्द भी उपनिषदोंमें है। वह हैं । परन्तु ऊपरके श्लोकमें इतनी कल्पना महाभारत में भी कहीं कहीं पाया है। अधिक है कि ब्रह्मलोकके लोग संहारके भगवद्गीतामें पुरुषोत्तम और भूतात्मा समय मुक्त होते हैं। यह स्पष्ट है कि शब्द आये है । "शारीर प्रात्मा वेदान्तका अन्तिम ध्येय मोक्ष है। परन्तु प्राज्ञेनात्मनान्वारूढः बृहदारण्यकमें घेदान्त मतसे मोक्षका अर्थ है ब्रह्मभाव।। वर्णित है । परन्तु उसमें और परमात्मामें मोक्ष और विमोक्ष शब्द गोतामे तथा भेद नहीं है। भूतात्मा, महानात्मा आदि उपनिषदाम भा है। परन्तु ब्रह्मानवाण, शब्द महाभारतमें पाये जाते हैं। पंचेन्द्रियाँ, ब्रह्मभूय आदि शब्द गीतामें अधिक है। है। बुद्धि, मन, पंचमहाभूत और उनके रूप "ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति" में ब्रह्म रसादि गुण, तथा सत्वरजस्तम त्रिगुण, शब्द ब्रह्मलोक-वाच्य है । सभापर्वकी उनके भेद आदि अनेक विषय महाभा- ब्रह्मसभासे यह स्पष्ट है कि ब्रह्मसभा रतमें, उद्योगपर्वके सनत्सुजातीयमें और अन्तिम गति नहीं है। वनपर्वके २६१ वे अन्यत्र वर्णित हैं। इनमेंसे शान्तिपर्वक अध्यायमें ब्रह्मलोकके ऊपर ऋभुलोक मोक्षधर्म पर्वमें इनका बहुत ही विस्तार है। बतलाये हैं जो कल्पमें भी परिवर्तन नहीं उसका विशेष उलंख करना प्रायः कठिन
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