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महाभारतमीमांसा

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  • महाभारतमीमांसा *

संवादमें जीवका अस्तित्व सिद्ध किया अ० २३८) । महाभारतके समयमें यह है, और मनु और बृहस्पतिके संवादमें दिखाई देता है कि कर्म त्यागकर संन्या- मोक्षका वर्णन है। यहाँ पर सबका स्पष्ट | साश्रम लेनेसे अथवा कर्म करके गृहला- सिद्धान्त यह बतलाया गया है कि- श्रममें रहकर ही मोक्ष मिलनेका प्रमा सुखावहुतरं दुःखं जीविते नासि संशयः। | वादग्रस्त और अनिश्चित था। परित्यजति यो दुःस्वं सुखं वाप्युभयं नरः। शुकने प्रश्न किया है:- अभ्येति ब्रह्म सोत्यन्तन्न ते शोचन्ति पंडिताः॥ यदिदं वेदवचनं लोकवादे विरुभ्यते । (अ० २०५) प्रमाणे वाप्रमाणे च विरुद्ध शास्त्रातःकुतः॥ सुख-दुःख, पुण्य-अपुण्य दोनों जब (शां० भ० २४३) छूटेंगे तब मोक्ष मिलेगा। मालूम होता है ____ तब व्यासजीने उत्तर दिया है कि:- कि वेदान्त-तत्वका यह मत महाभारत ब्रह्मचारी गृहस्पश्च वानप्रस्थोऽथ भिक्षुकः । कालमें निश्चित हो गया था। यथोक्तचारिणःसर्वेगच्छम्ति परमांगतिम्॥ इसके सम्बन्धमें शुक और व्यासका चतुष्पदी हि निःश्रेणी ब्रह्मण्येता प्रतिष्ठिता॥ संवाद महत्वका है। उसके अनेक विषय इसमें यह दिखलाया गया है कि (विचारके लिये) लेने योग्य हैं । परन्तु | किसी आश्रमका विधिवत् पालन करनेसे हम विस्तारके भयसे नहीं ले सकते। परमगति मिलती है। ब्रह्मको पहुँचनेकी वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्द ब्रह्म परं च यत्। चार सीढ़ियोंकी यह निसेनी है। हर शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति॥ एक सीढ़ी पर चढ़कर जाना सरल है। (शां० अ० २३२) परन्तु निष्कर्ष यह दिखाई देता है कि नीलकण्ठका कहना है कि इसमें शब्द- एक ही सीढ़ी पर मजबूत और परा ब्रह्मके लिए प्रणव ओंकार लेना चाहिए। पैर जमाकर वहाँसे उछलकर परब्रह्मको उपनिषदोंमें भी कहा है कि प्रणव ब्रह्म- जाना सम्भव है। तदनन्तर यहाँ चारों खरूप है। और, उपनिषोंका ही यह मत आश्रमोंका सुन्दर वर्णन है। कहा है कि है कि प्रणवकी उपासना करनेसे परब्रह्म- आयुका चौथा हिस्सा जब शेष रह जाय, की प्राप्ति होती है । इस श्लोकमे दिया तब मनुष्य वानप्रस्थके द्वारा दुआ कर्म-सिद्धान्त भी गूढार्थी है (शां० सद्यस्कारां निरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम् । • यह महत्वका श्लोक यहाँ पाया है:- आत्मन्यग्नीन् समारोप्य भालेभयशाः क्षत्राश्च हविर्यशा विशः स्मृताः। त्यश्वा सर्वपरिग्रहान् ॥ परिचारयशाः शूदास्तु तपोयशा द्विजातयः ।। केशलोमनखान् वाप्य यहरोक गूढार्थी है:- आकाशस्य तदा घोषं तं विद्वान् कुरुतेऽत्मनि । वानप्रस्थो मुनिस्ततः॥ .. तदव्यक्तं परं ब्रहा तत् शाश्वतमनुत्तमम् ।। (उक्त प्रकारसे) चतर्थाश्रमका ग्रहण और भी देखिये:- करे। संन्यासका प्राचार भी बतलाया पौरुषं कारणं केचिदाहुः कर्मस मानवाः। गया है। कहा है कि- देवमेके प्रशंसन्ति स्वभावमपरे जनाः ।। पौरुषं कर्म देवन्तु कालवृत्ति-स्वभावतः । कपालं वृक्षमूलानि कुचैलमसहायता। त्रयमेतत् पृथग्भूतमविवेकं तु केचन ॥ उपेक्षा सर्वभूतानामेतावरि मुलक्षणम् ॥ एतदेव च नैवं च न चोमे नानुमे तथा । । और, अन्तमें ब्रह्म जाननेवाले प्राण- कर्मणा विषयं प्रयुः मत्वरथाः ममदर्शिनः ।। | का भिन्न भिन्न श्लोकों में वर्णन है। "