पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५६५

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® भिन्न मतोका इतिहास । ॐ - - कहते हैं और जिसे ब्रह्मका साक्षात्कार हो सूत्रमें मुख्यतः सांख्योंके योगका भी जाता है वही श्रेष्ठ मुनि और वही ब्राह्मण खण्डन है। यह स्पष्ट है कि वे सूत्र सना. है। गुरुगृहमें रहकर ब्रह्मचर्यका पालन तनधर्मकी जय होनेके पश्चात्के हैं। करना चाहिए और गुरुके अन्तःकरणमें अर्थात् अनुमानतः वे पुष्पमित्रके कालके घुसकर ब्रह्मविद्या प्राप्त करनी चाहिए। अनन्तरके हैं । जब वेदोका पूर्ण अभिमान विद्या चतुष्पदी है; उसका एक पाद गुरुसे स्थापित हुआ, तब स्वभावतः वेदोंके मुख्य मिलता है, दूसरा पाद शिष्य अपनी भाग जो उपनिषद् थे उन्हींके मतका पूर्ण बुद्धिके बलसे प्राप्त करता है, तीसरा पाद श्रादर हुआ और इसीसे उपनिषद्बाह्य बद्धिक परिपक्क होने पर कालगतिसे सांख्यादि मत त्याज्य माने गये। महा- मिलता है और चौथा पाद सहाध्यायीके भारत-कालमें यह स्थिति न थी, और साथ तत्वविचारोंकी चर्चा करनेसे महाभारतसे मालूम होता है कि सांख्य मिलता है। यह बात महत्वकी है और और योग सनातन-मतके साथ ही साथ इसका विचार हमें आगे करना है। ब्रह्म- समान पूज्य माने जाते थे; तथापि का जो वर्णन सनत्सुजातके अन्तमें यह स्पष्ट है कि महाभारत-कालमें वेदान्त- विस्तारपूर्वक दिया है वह उपनिषद्के मत ही मुख्य था और उसीके साथ अन्य- अनुसार ही है। परन्तु यह कल्पना यहाँ मतोंका समन्वय किया जाता था। नवीन दिखाई देती है कि ब्रह्मसे हिरण्य- अर्थात् सबसे अधिक महत्व वेदान्तका गर्भकी उत्पत्ति हुई और उसने सृष्टिका था। हमें यह देखना है कि महाभारत- निर्माण किया। इस कल्पनाने साधारण कालमें यह मत किस गतिसे फैला या पौराणिक धारणाके साथ वेदान्तका मेल सङ्कचित हुश्रा। मिलानेका प्रयत्न किया है। शान्ति पर्वके कुछ आख्यानोंमें इस महाभारतमें वेदान्त-मतका विस्तार : तत्वज्ञानकी चर्चा है। परन्तु उसमें प्रायः किस प्रकार किया हुआ मिलता है, इसके गूढ़ अर्थके श्लोक अधिक हैं, इसलिए बतलानेमें पहले इस बातका स्वीकार टीकाकारको अपने मानके बल उनका करना होगा कि, महाभारतके समयमें अर्थ करना पड़ता है। इससे निश्चयके सांख्य तथा योगका इतना प्रादर था कि साथ नहीं बतलाया जा सकता कि महा- उनकी छाया महाभारतके शान्ति पर्व भारतकारको सचमुच वह अर्थ अभीष्ट और अन्य पर्वोके तत्वज्ञानके विवेचन था या नहीं। भाषान्तरमें जो अर्थ दिया पर पूर्णतया पड़ी हुई दिखाई देती है। है सो टीकाके आधार पर है, इससे यह किसी विषय या अध्यायको लीजिये, वहाँ नहीं मालूम होता कि टीकाका विषय सांख्य और योगका नाम अवश्य आता कौनसा है और मूलग्रन्थका अर्थ कौनसा है।इसके सिवासांख्य और वेदान्तमें ज्ञान- है। इसलिए ऐतिहासिक विचार करते काही महत्व होनेसे सौतिने कई जगह समय केवल भाषान्तरके भरोसे रहना उनका अभेद माना है। पाठकोको जान ठीक नहीं। इन अड़चनोंको दूर रखकर पड़ता है कि सौतिके मनमें यह कभी देखें कि हम क्या कह सकते हैं। शान्ति माया होगा कि वेदान्तके कुछ विशिष्ट पर्वमें पहले वैराग्यका बहुत ही वर्सन मत हैं। महाभारत-कालके बादकी स्थिति है। वेदान्त ज्ञानको वैराग्यकी आवश्य- इसके विरुद्ध है। बादरायणके वेदान्त- कता है। तदनन्तर भृगु और भारद्वाजके ६७