पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५५७

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8 भिन्न मतोंका इतिहास। * ५२० टीकाकारणे उक्त अर्थ निकाला है। यह नहीं मानता। योगशास्त्रमें २५ तस्वोंके स्पष्ट है कि इसका अर्थ कुछ गृढ़ है। परे २६ वाँ परमेश्वरको मानते हैं। इसके हम पहले देख चुके हैं कि योगमतका सिवा योगमें व्यक्तका भी एक लक्षण प्रथम उपदेशक ब्रह्मा था। इससे ब्रह्माके अधिक बतलाया गया है: यह यहाँ देने साथ तादात्म्य या साम्य होनेके सिद्धान्त- योग्य है। का निकलना सम्भव है। यह प्रकट है कि प्रोक्तं तव्यक्तमित्येव जायते वर्धते च यत् योग और सांख्यक मतमें मोक्षके बदले जीर्यते म्रियते चैव चतुर्भिलक्षणैर्युतम् ॥ कैवल्य शब्दका उपयोग करते हैं। महा-विपरीतमतो यत्तु तदव्यक्तमुदाहृदतम् ३०॥ भारत-कालमें दिखाई पड़ता है कि कैवल्य : (शां०अ०२३३) शब्द सांस्यमतमें भी लिया गया है। योगमें परमेश्वर बोधस्वरूप है, और सांख्यदर्शनमेतत्ते परिसंख्यानमुत्तमम्। वह अक्षानका आश्रय लेकर जीवदशामें एवं हि परिसंख्याय सांख्यकेवलतां गतः ॥ आता है। योगशास्त्रकी भाषामें दो पदार्थ (शां० अ० ३१५-१६) होते हैं, बुद्ध और बुध्यमान या परमात्मा ठीक यही वर्णन पाया जाता है कि तथा जीवात्मा। ब्रह्मगति ही सांख्यकी गति है। परन्तु बुद्धमप्रतिबुद्धत्वाद् बुध्यमानं च तत्वतः । यह सांख्य और वेदान्तकी एकवाक्यता बुध्यमानं च बुद्धं च प्राहुर्योगनिदर्शनम् ॥ करनेसे पाया जाता है। योगके वर्णनमें (शां० अ० ३०५-४) केवल शब्द महाभारतमें भी पाया है। पंचविशात्परं तत्वं पठ्यते न नराधिप । यदा स केवलीभूतः षडिशमनुपश्यति। सांख्यानां तु परं नत्वं यथावदनुवर्णितम् ॥ नदास सर्वविविद्वान् न पुनर्जन्म विन्दते॥ इस प्रकार सांग्व्य मत बताकर योग- (शां०प०३१६) का भेद बतलाया गया है। सोख्योका इसमें जो केवली शब्दका उपयोग अन्तिम पदार्थ पुरुष है। योगने जीव किया गया है, वह योगमतके २६ व और जीवान्मा दो माने और यह भी तत्वकी दृष्टिसे मोक्ष पानेवालेके सम्बन्धमें माना कि वे बुद्ध और बुध्यमान हैं। लाया गया है। 'जब वुध्यमान जीव कैवल्यको पहुँचता है एवं हि परिसंख्याय ततो ध्यायति केवलं। तब वह बुद्ध होता है। ये बुध्यमान और तस्थुषं पुरुषं नित्यमभेद्यमजरामरम् ॥ बुद्ध शब्द पतञ्जलिमें नहीं दिखाई देते । (शां० अ० ३१६-१७) बुद्ध शब्द गौतमने योगशास्त्रसे ही लिया एतेन केवलं याति त्यक्त्वा देहमसाक्षिकम् होगा। भगवद्गीताकी पद्धतिके अनुसार कालेन महता राजन् श्रुतिरेषां सनातनी॥ महाभारतमें योगकी भी परम्परा दी गई (शां० ० ३१६-२६) है। प्रथम यह योग हिरण्यगर्भने वसिष्ठ- इस श्लोकमें केवल यानी परम पुरुष को सिखाया, वसिष्ठने नारदको और या परमात्माके योगका भाव है। परन्तु नारदने भीष्मको सिखाया। शां० सांख्यका भाव समझ नहीं आता। | ३०E में भगवद्गीताके समान कहा है कि शान्तिपर्व के अनेक अध्यायोमें सांख्य यह ज्ञान अवत तथा गुणहीनको नहीं और योगको विस्तृत रूपसे बतलाया देना चाहिए। मालूम होता है कि शा० है । ३०७ ३ अध्यायके अन्तमें कहा है कि अ० २५४ के अन्तमें शांडिल्य भी योगका पीसवें पुरुषके आगे सांख्य कुछ भी प्राचार्य माना गया है।