पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५५४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
५२६
महाभारतमीमांसा

५२६ ® महाभारतमीमांसा % 3D ऊपर जो सगुण और निर्गुण योग शब्द मतिकान्तो यो निष्कामति मुच्यते पाये हैं, उनके बदलेमें आगे हठयोग और (शां०प०अ० २३६-४०) के अनुसार यह राजयोग शब्द प्रचलित हुए दिखाई देते माना गया है कि जो योगी नाना प्रकार- हैं। पतञ्जलिमें न सगुण और न निर्गुण की शक्तियोंको त्यागता हुआ आगे जाता शब्द हैं और न हठयोग और राजयोग है वह मक्त होता है। शब्द आये हैं। राजयोग शब्दका अर्थ इस अध्याय (शां०प०अ० २३६) में राजविद्या या राजगुह्य शब्दके समान ! विस्तारपूर्वक बतलाया गया है कि योग समझना चाहिए । अथवा यो कहिये कि कितने प्रकारका है. और पञ्चभूतों पर योगानां राजा राजयोगः अर्थात् योगोंमें जय प्राप्त करनेसे कैसी सिद्धियाँ मिलती श्रेष्ठ योग, यह अर्थ करना चाहिए। इससे हैं। पतञ्जलिके योगशास्त्र में भी इनका यह विदित होता है कि सगुण और कुछ निर्देश भिन्न रीतिसे किया गया है। निर्गुणके भेदके कारण योग भिन्न भिन्न ! इनमेकी कुछ बातें वर्णन करने योग्य हैं। प्रकारके थे। शारीरिक और मानसिक "जो स्त्रीके समागमसे मुक्त हुआ है वही क्रियाके द्वारा परमेश्वरसे तादात्म्य पाना, । योग करे । योगसाधन १२ हैं । देश, कर्म, यही योग शब्दका अर्थ अभिप्रेत होगा। अनुराग, अर्थ, उपाय, अपाय, निश्चय, जिस योगमें शारीरिक क्रियाको ही प्रधा-चक्षु, आहार, मन और दर्शन ये योगके नता दी जाती है वह सगुण योग है। १२ उपकरण है।" ये पतञ्जलिसे कुछ ऊपर हम कह आये हैं कि महाभारत- भिन्न है। योगी कर्मकाण्डका त्याग करता कालमें यह कल्पना प्रचलित थी कि है, परन्तु वह कर्मत्यागका दोषी नहीं योगसे अनेक प्रकारकी सिद्धियाँ मिलती। बनता (शब्द ब्रह्मातिवर्त्तते)। यहाँ उप- हैं। अर्थात् अन्य सब मतवादियों के मतके निषद्की नाई योगके विषयमें रथका समान वह सारे जन-समूहमें प्रचलित एक सुन्दर रूपक बाँधा गया है। थी। बौद्ध, जैन, संन्यासी आदि सब धर्मापस्थो ह्रीवरूथी उपायापायकूबरः। लोग मानते थे कि सिद्धोंको विलक्षण अपानाक्षः प्राणयुगः प्रज्ञायुर्जीवबन्धनः ॥ सामर्थ्य प्राप्त होती है, और कहा जा ___अर्थात् धर्म उपस्थ है यानी रथीके सकता है कि योगी भी यही मानते थे। बैठनेकी जगह है: दुष्कर्मकी लज्जावरूथ परन्तु हमारी रायमें यह कल्पना प्रथम है यानी रथका आच्छादन है; उपाय और योगमतसे ही निकली, तत्पश्चात् दूसरे अपाय दोनों कूबर अर्थात् डंडियाँ हैं: मतमें घुसी । भगवद्गीतामें योगीकी अपान धुरा है। प्राण जूना है; और बुद्धि. सिद्धिकी कहीं सूचना नहीं है; अतएव आयु तथा जीव (जूएको) बाँधनेकी यह कल्पना भगवद्गीताके बादको और रस्सियाँ है-चेतनापन्धुरश्चारुम्बा- सौतिके महाभारतके कालके पूर्वकी होनी चारग्रहनोमिवान् । चेतना सारथिके चाहिए। इस प्रकार हम देखते हैं कि बैठनेकी पटिया है। प्राचार पहियेका योगकी कल्पना कैसे बढ़ती गई। महा-घेरा है. दर्शन, स्पर्श, घाण और श्रवण भारतमें यह बतलाया गया है कि सिद्धि- चार घोड़े हैं। इस रथमें बैठकर जीव- केही पीछे लग जानेसे योगीको अन्तिम को चाहिए कि वह परमेश्वरकी ओर कैवल्य प्राप्ति न होगी और योगैश्वर्य-दौड़े। धारणा उसके रास्ते हैं।