®भिन मतोंका इतिहास । ॐ ५२५ विष्ट किये गये । लोकमतके अनुसार यह भी सिद्धान्त पाया है कि योगीको सांख्य और योगमें जो विरोध माना अष्ट-सिद्धिकी प्राप्ति होती है। योगीकी जाता था, वह वस्तुतः और तत्वतः भिन्न भिन्न सिद्धिनोंकी कल्पना जैसी विरोध नहीं है। इस बातको पहले गीता- महाभारत-कालमें पूर्णताको पहुँची थीः ने ही प्रतिपादित किया है। यह जान वैसी भगवद्गीतामें नहीं दिखाई देती। लेना अत्यन्त आवश्यक है कि वह विरोध भगवडीतामें इतना ही वर्णन है कि योगी- कौनसा था ? गीताके "सांख्य योगी को समाधिमें आनन्द मिलता है। शेष पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिता". क्रियाएं भगवद्गीताके छठे अध्यायमें इस वचनका उच्चार हमें सारे महाभारत- मिलती है। भगवद्गीतामें योग सितिका में दिखाई देता है और हर जगह यह मुख्य लक्षण यही बतलाया गया है कि बतानेका प्रयत्न किया गया प्रतीत होता मन अतिशय दुःखसे चञ्चलन होकर है कि वास्तविक विरोध यह नहीं है। निर्वात प्रदेशके दीपके तुल्य स्थिर रहे। इसमें गीताका ही भाव प्रकट होता है। यह अध्याय बतलाता है कि महाभारत- हम पहले देखेंगे कि महाभारतके समय ' कालमें योगमतको क्या स्थिति थी, और योगका स्वरूप क्या था ? शान्तिपर्वके इसीसे वह महत्वका भी है । जो योग- ३१६ वें अध्यायमें योगका विस्तृत वर्णन | सिद्धियाँ इसमें बताई गई हैं उनका वर्णन दिया है । "इन्द्रियाँ और पंचप्राण (रुद्र) । भगवद्गीतामें नहीं है, इससे यह नहीं योगके मुख्य साधन है। इनका दमन माना जा सकता कि उस समय ये मानी करक योगी दशा दिशाओम चाह जहाँ ही नहीं जाती थी। परन्तु हमारा अन- जा सकता है। जड़ देहका नाश होने पर मान यह है कि यह कल्पना पीछेसे बढ़ी भी योगी अणिमादि अष्ट सिद्धियोंसे युक्त होगी। सांख्य और योगका ध्येय एक ही सूक्ष्म देहसे सब प्रकारके सुखोंका अनु- . है; परन्तु उनकी क्रियाएँ भिन्न हैं। दोनों भव करता हुआ सारे जगत्में घूमता : का ध्येय मोत है: किन्तु सांख्यकी क्रिया रहता है। शानियोंने वेदमें कहा है कि केवल शान है और योगकी क्रिया समाधि- योग अष्टगुणात्मक है । वैसे ही अष्ट- की साधना है । तथापि तत्वज्ञानके गुणात्मक सूक्ष्मयोग है । शास्त्रमें दिये हुए विषयमें सांख्य और योग दोनोंका अधि- मतके अनुसार योग-कृत्य दो प्रकारके कांशमें मेल था। विशेषतः योग और बताये हैं। प्राणायाम-युक्त मनकी एका- ' सांख्यका इसमें मतैक्य था कि हर एक प्रता एक मार्ग है: दूसरा मार्ग है ध्याता, पुरुषका आत्मा भिन्न है और आत्मा ध्येय और ध्यानका भेद भूलकर इन्द्रिय- अनेक हे। ऊपर हम कह ही चुके हैं कि दमनपूर्वक मनकी एकाग्रता । पहला , यह मत वेदान्तके मतसे भिन्न था। सगुण है दूसरा निर्गुण ।" योगशास्त्रके शान्ति पर्वके भिन्न भिन्न अध्यायोंसे जो लक्षण पतंजलिने बताये हैं, अधि- । ज्ञात होता है कि महाभारतके समय योग कांशमें घे ही लक्षण उपर्युक्त वर्णनमें । शब्दका अर्थ ध्यानधारणात्मक योग था। भाये हैं। परन्तु पतंजलिमें सगुण और जो योगशास्त्र आगे चलकर पतजलिने निर्गुण शब्द नहीं हैं; उसमें यम, नियम बनाया, प्रायः वैसा ही योगशास्त्र सौति- मादि पाठ साधन तथा प्राणायामादि के सामने था, यह बात दिखाई नहीं समाधितककी क्रियाका वर्णन है। यहाँ देती: कुछ बातों में भेद विदित होता है।
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