से भिन्न मतोका इतिहास । * ५२३ भमिरापो नलोवायुः खं मनोबुद्धिरेव च । विस्तार हुआ दिखाई देता है। प्रश्न यह महङ्कार इतीयं मे भिमा प्रकृतिरष्टधा ॥ है कि प्रत्येक शरीरकी आत्मा एक है अर्थात् निर्जीव जड़ प्रकृति मेरी ही अथवा भिन्न भिन्न ? इसका उत्तर सांख्य है तथा जीव-स्वरूपी अपरा प्रकृति भी मतके अनुसार यही हो सकता था कि मेरी ही है। इससे यह जान पड़ता है। वास्तविक पुरुष जब एक है, तब आत्मा कि जड़ और जीव दोनोंको ही प्रकृतिके भिन्न नहीं होना चाहिए । परन्तु महा- नामसे सम्बोधन किया गया है। अर्थात् । भारतके समय ऐसा निश्चय हुआ दिखाई सांख्यका प्रकृति शब्दका अर्थ यहाँ छोड़ नहीं देता । शान्ति पर्वके अध्याय ३५० में दिया गया है। इसके विपरीत भागेके यह कहा गया है कि-सांख्य और योग- पन्द्रहवें अध्यायमें कहा गया है कि- शास्त्रके मतानुसार आत्मा अनेक हैं, द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। परन्तु व्यासके मतमें पुरुष सब जगह क्षरः सर्वाणि भूतानि कृटस्थोक्षर उच्यते॥ एक भरा हुआ है। अर्थात् यहाँ यह स्पष्ट अर्थात् जड़ और जीव दोनोंको बताया गया है कि वेदान्तका मत सांख्य- पुरुषकी ही संज्ञा दी गई है और कहा से भिन्न था। सांख्य और योगके मतोंमें गया है कि जड़ जीव पुरुषसे उत्तम, ! प्रारम्भस ही कुछ बातें समान थी, और उसके परे रहनेवाला परमात्मा उन्हीमेकी एक यह भी है। इसके बाद पुरुषोत्तम है। प्रकृति और पुरुष दोनों सांख्योंके जो जो सिद्धान्त निकले उनका संख्याएं सांख्यको हैं, तथापि भगव- वेदान्तियोंने हमेशा खण्डन ही किया द्रीतामें उन दोनोंका दो स्थानोंमें भिन्न है। महाभारतके पश्चात् सांख्योंको भार- अर्थसे उपयोग किया गया है। इससे तीय आर्योंके आस्तिक तत्वज्ञान में स्थान यह माना जा सकता है कि भगध नहीं मिला। उनका मत निरीश्वरवादी गीताके समयमें भिन्न सांख्य मतका था, इसी लिए यह स्वाभाविक परिणाम अधिक प्रचार नहीं था, वरन् वह नया हुआ । यह बात प्रसिद्ध है कि इस दोषको ही निकला था। अथवा यह कह सकते मिटानेके लिए अर्वाचीन समयमें सांख्य हैं कि सांख्य मतका विरोध अधिकतर सूत्र बनाये गये और उनमें सांख्योंको मान्य नहीं हुआ था और तत्वज्ञानमें ईश्वरवादी अर्थात् आस्तिक बनाया गया उसके लिए बड़ा ही श्रादर था। है। महाभारतके समय सांख्य मत ___ यहाँतक तो हमने यह देखा कि आस्तिक मतोंमें गिना जाता था और सांख्य मतकी वृद्धि कैसे हुई। उनका उसकी वृद्धिका इतिहास उपर्युक्त प्रकार- पहला मत यह है कि प्रकृति और पुरुष का दिखाई देता है। भिन्न हैं। दूसरा यह कि प्रकृति-पुरुषकी आगे चलनेके पूर्व यह देखना है कि मित्रताके ज्ञानसे मोक्ष मिलता है । सांख्य और संन्यासका कुछ सम्बन्ध तीसरा यह कि प्रकृतिसे सब जड़ सृष्टि नहीं भगवाटीतामें यह समय पैदा हुई। चौथा मत यह कि कुल तत्व कुछ कुछ देख पड़ता है । 'यं संन्यास- चौबीस हैं। पाँचवाँ मत यह कि सृष्टिमें जो अनेक प्रकारकी भिन्नता दिखाई देती है मिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डवः उसका कारण त्रिगुण हैं। इस प्रकार इसमें सांख्य और संन्यासका मत बत- महाभारतके कालतक सांख्य मतका लाया गया है। परन्तु सांख्यका अर्थ
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