ॐ तत्वज्ञान । ५१५ यह निश्चित करना अत्यन्त कठिन होता सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यस्तस्य है कि, धर्मका आचरण कौनसा है और हेतुस्त्वनित्यः॥ अधर्मका आचरण कौनसा है: और इस अर्थात् "भय अथवा काम अथवा विषयमें शंका उपस्थित होती है कि, ऐसे लोभमें फँसकर धर्मको मत छोड़ो । अवसर पर मनुष्यको क्या करना चाहिए। जीवनकी भी परवा मत करो। धर्म नित्य महाभारतमें ऐसे स्थल कितने ही हैं; और है; और सुखदुःख अनित्य है । जीवात्मा दूसरी जगह हम इस बातका विचार नित्य है और उसका हेतु जो संसार है, करेंगे कि, इस विषयमें महाभारतकारकी सो अनित्य है ।" व्यवहार-निपुण बतलाई हुई नीति कहाँतक ठीक है । व्यास दोनों भुजाएँ उठाकर उच्च स्वरसे यहाँ इतना ही बतलाना यथेष्ट होगा कि, मंसारको महाभारनमें यही उपदेश कर हमारे जीवनमें ऐसे अपवादक अवसर रहे हैं। बहुत ही थोड़े उपस्थित होते हैं, जिस समय हम इस शंकामें पड़ जाते हैं कि.. धर्मकी व्याख्या। अब क्या करना चाहिए। परन्त हजारों महाभारतमें धर्मकी व्याख्या तत्वान अन्य अवसर ऐसे होते हैं कि, जिस के लिए उचित ही दी गई है। भारती समय हमें यह मालम रहता है कि नीति- प्रार्योके विचार इस विषयमें भी अत्यन्त का आचरण कौनसा है; और तिस पर भी उदात्त हैं । धर्मकी व्याख्या यों की गई है। स्वार्थक प्रलोभनमें पड़कर, अथवा अन्य प्रभवार्थाय भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् । अनेक कारणोंसे, हम न्यायका आचरण यः म्यान्प्रभवसंयुक्तः सधर्म इति निश्चयः॥ छोड़ देते हैं। ऐसे अवसर पर हमें अपने धारणाद्धर्म इत्याहुः धर्मेण विधृताः प्रजाः। ऊपर पूर्ण अधिकार रखना चाहिए: और यः स्याद्धारणसंयुक्तः सधर्म इति निश्चयः॥ भय अथवा लोभके वशीकरणमे हमें अहिंसायहि भूतानां धर्मप्रवचनं कृतम् । अपने आपको बचाना चाहिए । जैसा यः स्यादहिंसासंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः॥ कि भगवद्गीतामें कहा है, सद्गुणोंकी : श्रुतिधर्म इतिा के नेत्याहुरपरे जनाः । दैवी सम्पत्ति प्रत्येक मनुष्यके भागमें न च तत्प्रन्यायामो नहि सर्व विधीयते ॥ आई हुई है। मनोनिग्रह और शुद्ध पाच- उत्कर्ष लोगोंकी धारणा (स्थिति) रणसं उस सम्पत्तिकी वृद्धि ही करतं । और लोगोंकी अहिंसा (अनाश) यही रहना चाहिए । उसका नाश न होने देना धर्मके हेतु हैं। ये जहाँ सिद्ध नहीं होते, चाहिए । एक लाख श्लोकोंका बृहत् महा- : वह धर्म नहीं है । श्रुत्युक्त धर्ममें भी इसका भारत ग्रन्थ पग पग पर कह रहा है कि विचार करना योग्य है, क्योंकि श्रृति भी "धर्मका आचरण करो। धर्म कभी मत हर एक कर्मको करनेकी अाशा नहीं देती। छोड़ो।" प्रारम्भमें भी यही कहा है धर्मके विषयमें केवल तर्कयुक्त कल्पना कि "धर्ममतिर्भवतुवः सततोत्थितानाम्" देनेका भी महाभारतने प्रयत्न किया है। "तुम सतत उद्योग करते हुए अपनी श्रद्धा वह यहाँ अन्तमें देने योग्य है । शान्ति धर्ममें रहने दो।" इसी भाँति अन्तमें भी पर्वके २५६वे अध्यायमें युधिष्ठिरने जब भारतसावित्रीमे यही उपदेश किया है कि- यह प्रश्न किया कि-"कोयं धर्मः कुती न जातुकामान भयानलोभात् धर्म धर्मः" तब भीष्मने पहले सदैवकी भाँति त्यजेजीवितस्यापिहतोः । धर्मो नित्यः यह कहा:-
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