५०२ & महाभारतमीमांसा परमाणुरूप हैं, और वह गोल चिकना संसृतिमें प्रात्माको भिन्न भिन्न पशुपक्षी तथा अत्यन्त चंचल स्वरूपका है । वह आदिकोंके शरीरमें जाना पड़ता है। यही इस जड़सृष्टिमें चारों ओर भरा हुआ नहीं, किन्तु स्थावर, परन्तु सजीव, वृक्षों है । आत्माके असंख्य परमाणु इधरसे और तृणोंके शरीरमें भी प्रवेश करना उधर दौड़ते रहते हैं, और वे प्राणवायुके पड़ता है। जिस प्रकार एक ही सूत्र सुवर्ण, साथ शरीर में घुस जाते हैं । प्राणवायुको मोती, मूंगे अथवा पत्थरके मनकेसे श्वासोच्छास-क्रियाके साथ ये बाहर भी जाता है, उसी प्रकार बैल, घोड़ा, मनुष्य, निकल सकेंगे । परन्तु श्वास भीतर लेने- हाथी, मृग, कीट, पतंग इत्यादि देहोंमें, की क्रियासे वे सदैव भीतर आते हैं । स्वकर्मसे बिगड़ा हुआ और संसारमें इस प्रकार जबतक.श्वास भीतर लेनकी फँसा हुआ पान्मा जाता है। क्रिया जारी है, तबतक मनुष्य जीवित तदेव च यथा सूत्रं सुवणे वर्तते पुनः । रहता है। और आत्मा शरीरमें वास करता मुक्तास्वथ प्रवालेषु मृण्मये राजते यथा ॥ है। मनुष्य जब मरता है, तब स्वाभाविक तद्वद्गोश्वमनुप्येषु तद्वद्ध स्तिमृगादिषु । ही अन्तिम उच्छासके साथ प्रान्मा निकल तद्वत्कीटपतङ्गेषु प्रसक्तात्मा स्वकर्मभिः ॥ जाता है। (शान्ति पर्व अ० २०६) इसी प्रकारके अनेक मत अनेक तत्व- वासनाके योगसे कर्म होता है। और शानोंमें मान गये हैं : परन्तु यह बात कर्मके योगसे वासनाकी उत्पत्ति होती आपको मालूम हो जायगी कि भारती है। इसी भाँति यह अनादि और अनन्त आर्योंका कर्म-सिद्धान्त उन सबसे अधिक चक्र जारी रहता है: परन्तु बीज अग्निसे सयुक्तिक है। शरीरमै ईश-अंश श्रान्मा दग्ध हो जाने पर जैसे उसमें अङ्कर नहीं क्यों आता है इसका कारण, जीवके फूटता, उसी प्रकार अविद्यादि क्लंश ज्ञान- कर्मकी उपपत्तिके अतिरिक्त और कुछ हो । रूपी अग्निसे दग्ध हो जाने पर पुनर्जन्म- ही नहीं सकता। ईश्वरकी इच्छा अथवा की प्राप्ति नहीं होती। यह शान्ति पर्व अात्माकी स्वाभाविक प्रवृत्तिकी अपेक्षा अध्याय २११ में कहा है। कर्मके बन्धनका नियम अत्यन्त उच्च और कितने ही पुनर्जन्मवादी लोगोको यह इस तत्वके अनुकूल है कि, सारी सृष्टि बात स्वीकार नहीं है कि पुनर्जन्मके फेरेमें नियमबद्ध है। प्रत्येकके कर्मानुसार आत्मा अात्माको वृक्षादिकोंका भी जन्म प्राप्त भिन्न भिन्न देहोंमें प्रवेश करता है: और होता है । उनके मतानुसार जहाँ एक बार उसका यह संसारित्व उसके कर्मानुसार श्रात्माकी उन्नति होने लगी कि, फिर जारी रहता है। जबतक परमेश्वरके उसकी अधोगति कभी नहीं होती- उचित ज्ञानसे उसके कर्मका नाश नहीं अर्थात् मनुष्यकी प्रात्मा पशुयोनिमें कभी होता, तबतक उसको संसारकी इन नहीं जाती । इसी भाँति पशुओंकी पात्मा भिन्न भिन्न योनियों में फिरना पड़ता है। 'वृक्षयोनिमें नहीं जाती। परन्तु महाभारत- शान्ति पर्व अध्याय २२१ में भीप्मने युधि- का मत ऐसा नहीं जान पड़ता। उपनि- ष्ठिरको यह बतलाया है कि, कर्म औरषदोंके मतसे भी आत्माको वृक्षयोनिमें भोगके नियमानुसार आत्माको इस अनन्त जाना पड़ता है। बल्कि महाभारत-कालमें भवचक्र में एक देहसे दसरे देह में किस यह बात मालम थी और स्वीकार भी थी भाँति घूमना पड़ता है। इस पुनर्जन्मकी कि, वृक्षोंमें जीव अथवा चैतन्य है।
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महाभारतमीमांसा