तन्वज्ञान । ४६५ सित होता है। उसे विस्तारके साथ यहाँ समय निर्वात प्रदेश उत्पन्न करनेका प्रयोग बतलानेकी आवश्यकता नहीं। इसी भाँति | करना सम्भव ही न था। जो हो; यह बुद्धिकी क्रियाका भी प्रश्न उपस्थित होता | निश्चित करना सबसे कठिन है कि, दृष्टि- है। पहले, प्रारम्भमें ही तत्वज्ञानीको यह की इन्द्रिय कैसे कार्य करती है और इस निश्चित करना आवश्यक होता है कि, विषयमें प्राचीन कालमें भिन्न भिन्न तर्क इन्द्रिय अन्य-ज्ञान कैसे होता है। तत्वक्षा- किये गये थे। कुछ लोगोंका मत यह था नियोंको यह प्रश्न सदैव रहस्यमय दिखलाई कि, दृष्ट्रिकी इन्द्रिय नेत्रोंसे निकलकर देता है कि इन्द्रियोंको ज्ञान होता कैसे है ? | देखे हुए पदार्थसे संलग्न होती है और इस प्रश्न पर मनुष्य स्वाभाविक ही तुरन्त इसलिए उसके आकार और रंगका ज्ञान यह उत्तर देता है कि, जो पदार्थ ज्ञात होता होता है। ग्रीक लोगोंमें भी कितने ही है, उसके संयोगसे। क्योंकि प्रत्यक्ष पदार्थों दार्शनिकोंका यह मत था कि, प्रत्येक से त्वक् और जिह्वाका संयोग होनेसे स्पर्श पदार्थसे जिस प्रकार परमाणु बाहर निक- और रसका बोध होता है। परन्तु उपर्युक्त लते हैं, उसी प्रकार उसके प्राकार और रीतिसे जब इस प्रश्नको हल करने लगते रंगके मंडल अथवा पटल बराबर बाहर हैं कि.गंध कैसे प्राता है. तब यही मानना । निकलते रहते हैं और अब देखनेवालोकी पड़ता है कि, जिस पदार्थका गंध आता आँखोंसे संयोग होता है, तब उनको है, उस पदार्थके सूक्ष्म परमाणु नासिका- पदार्थके रङ्ग-रूपका ज्ञान होता है। भार- में प्रविष्ट होते हैं। और यह बात सच भी तीय दार्शनिकोंके मतसे दृगिन्द्रिय और हो सकती है। परन्तु यह प्रश्न कठिन है दृश्य पदार्थका संयोग, तेज अथवा प्रकाश- कि, शब्द और रूपका कर्ण और नेत्रको के योगसे होता है। सभी इन्द्रियों के पदार्थ- कैसे बोध होता है। यह नहीं कहा जा संयोगसे होनेवाले ज्ञानके लिए मनकी सकता कि, इस प्रश्नके विषयमें भारती आवश्यकता है। मन शरीरमें है: और आर्य तन्ववेत्ताओंका मत ग़लत है । कि- नाड़ी द्वारा सब इन्द्रियों में व्याप्त रहता बहुना उन्होंने जो यह निश्चित किया कि, है । इसी मनके द्वारा इन्द्रियों पर शब्द सारे महाभूतोंके साधनसे एक जगह- पदार्थका जो सन्निकर्ष होता है, वही बुद्धिमें से दूसरी जगह जाता है, सो यह उनके पहुंचता है : और वहाँ ज्ञान उत्पन्न होता एक बड़े अनुभव और भारी बुद्धिमत्ताका है। मनुष्यका मन यदि और कहीं होगा, लक्षण है । शब्द पृथ्वीसे और पानीसे भी तो इन्द्रिय और पदार्थका संयोग होने सुनाई देता है। और हवासे भी सुनाई पर भी ज्ञान नहीं होगा। भारतीय दार्श- देता है। परन्तु यह कल्पना कि, अाकाश- निकोने चित्तकी एक और भी सीढ़ी इस से भी शब्द सुनाई देता है, अाजकलके विषयमें मानी है। रसायन-शास्त्रके आविष्कारके अनुसार चित्तमिन्द्रियसंघातात्परं तस्मात्परं मनः । मिथ्या ठहरती है। आजकल यह अनु- मनसस्तु पराबुद्धिः क्षेत्रको बुद्धितः परः ।। भवसे निश्चित हा है कि निर्वात प्रदेश- (शांतिपर्व १०२७६) में शब्द नहीं जाता । परन्तु प्राचीन कालमें अर्थात् देहमें इन्द्रियाँ, चित्त, मन, यह बात मालूम नहीं थी। क्योंकि उस बुद्धि और आत्माकी परम्परा लगी है: ___ समे भी संदेह है क्योकि शब्द आनकल टेलीफोन और इसी परम्परासे ज्ञान होता है। मे भी जाता है। अाजकलके पाश्चात्य शारीर-शास्त्रानुसार
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