पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५१८

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महाभारतमीमांसा

४६० 8 महाभारतमीमांसा * लगती है, तब जिस प्रकार संसार धीरे वह अवश्य ही रहस्यमय है और ऐसा धीरे अदृश्यसा होता जाता है, उसी प्रकार है, जो समझमें नहीं पाता: क्योंकि यह सृष्टिके संहारकालमें भिन्न भिन्न व्यक्तियाँ प्रश्न ही ऐसा कठिन है। सनन्सुजातने एक अव्यक्तमें लयको प्राप्त होती हैं । यहाँ | कहा:- हमको कहना पड़ता है कि, यह नियमसे दोषो महानत्र विभेदयोगे, और नियतकालसे होनेवाला खेल नहीं . अनादियोगेन भवन्ति नित्याः। है। खेल तो चाहे जब भंग किया जा तथास्य नाधिक्यमपैति किंचि- सकता है । अस्तु । इस प्रश्नका सन्तोष- दनादियोगेम भवन्ति पुंसः॥ जनक उत्तर देना असम्भव है: और इसी इस श्लोकका अर्थ लगना कठिन है: लिए श्रीमत् शङ्कराचार्यने वेदान्तसूत्रोंके और टीकाकारने इस जगह श्रीमत् शङ्क- भी आगे जाकर ऐसा कहा है कि, यह गचार्यजीका मायावाद लेकर ऐसा पचन इस कल्पनासे कहा गया है कि, तात्पर्य निकाला है कि, यह विश्वास संसार हमको दिखलाई देता है। परन्तु वास्तवमें स्वप्नवत् है। जगत्का उत्पन्न होना ही वास्तवमें आभास य ऐतद्वाभगवान्स नित्यो है। वास्तवमें जगत्का अस्तित्व ही नहीं विकारयोगेन करोति विश्वम् । है। संसार न उत्पन्न हुआ है और न लय तथा च तच्छक्तिरिति स्म मन्यते को ही प्राप्त हुआ है। निष्क्रिय परमेश्वर- नथार्थवेदे च भवन्ति वेदाः ॥ का रूप जैसा है. वैसा ही है। परमेश्वरके जो सत्य और नित्य है. वह परब्रह्म तर जगत्का आभाससा मालूम होता है। है। वही विकार योगसे विश्व उत्पन्न श्रीमत् शङ्कराचार्यका यह मायावाद महा. करता है। और यह माननेके लिए वेदोंका भारतमें कहाँतक है, इसका विचार ही प्राधार है कि, उसकी वैसी शक्ति है। अन्यत्र किया जा सकेगा। हाँ, शङ्करा- इस प्रश्नका निपटाग सांख्यौने बहुत चार्यजीने इस कल्पनासे इस कठिन प्रश्न- ही भिन्न प्रकारसे किया है। उनका कथन को बहुत अच्छी तरह हल किया है। उद्योग यह है कि, प्रकृतिमें सत्व, रज और पर्वके सनत्सुजातीय श्राख्यानमें इस नम, ये तीन गुण है । परन्तु ये तीनों विषयमें सरल ही प्रश्न किया गया है- गुण सदैव न्यूनाधिक परिमाणमें रहते कोसौ नियुंक्ते तमजं पुराणम। हैं। जिस समय ये तीनों गुण साम्या- सचेदिदं सर्वमनुक्रमेण ॥ वस्थामें रहते हैं, उस समय यह दृश्य किं वास्य कार्यमथवा सुखं च जगत् अथवा व्याकृत सृष्टि उत्पन्न नहीं तन्मे विद्वान्हि सर्व यथावत् ॥ होती। परन्तु जिस समय इन त्रिगुणों- "उस पुराण अजन्मा परब्रह्मको, उत्पत्ति के साम्यमें न्यूनाधिकता होकर गड़बड़ी करनेके लिए, कौन बाध्य करता है ? यदि पैदा होती है, उस समय सृष्टिकी उत्पत्ति यह सब दृश्य क्रमशः वहीं हुआ है तो होती है । परन्तु इस कल्पनासे पूर्वोक्त उसका कार्य क्या है, अथवा उसमें उसको प्रश्नका खुलासा नहीं होता । वह वैसा क्या सुख होता है ? आप विद्वान् है इस- ही रह जाता है। पूछा जा सकता है लिए यह मुझे यथातथ्य बतलाइए।" यह कि त्रिगुणोंकी साम्यावस्था में ही अन्तर प्रश्न धृतराष्ट्रने सनत्सुजातसे किया है। क्योंकर पड़ता है ? यदि यह माना जाय सनत्सुजातने इस पर जो उत्तर दिया, कि, पुरुषके सान्निध्यके कारण यह अन्तर