पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५१७

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  • तत्वज्ञान ।

निस्ट (नवीन प्लेटोमतवादी ) यह उत्सर लोगोंमें, कुछ काम न होने पर मनुष्य देते हैं कि-"यद्यपि परमेश्वर निष्क्रिय अपने मनोरञ्जनके लिए केवल खेल खेलत और निर्विकार है, तथापि उसके पास है, उसी प्रकार परमेश्वर लीलासे जगत् पास एक कियामंडल इस भाँति घूमता का खेल खेलता है। रहता है, जैसे प्रभामंडल सूर्यबिम्बके यह सिद्धान्त भी अन्य सिद्धान्तोंकी भासपास घूमता रहता है । सूर्य यद्यपि भाँति ही सन्तोषजनक नहीं है। अर्थात् स्थिर है, तो भी उसके आसपास प्रभाका परमेश्वरकी इच्छाकी कल्पना सर्वथैव चक्र बराबर फिरता ही रहता है। स्वीकार होने योग्य नहीं है। परमेश्वर सभी पूर्ण वस्तुओंसे इसी प्रकार यदि सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और दयायुक्त प्रभामण्डलका प्रवाह बराबर बाहर निक- है, तो लीला शब्द उसके लिए ठीक नहीं लता रहता है।" इस प्रकार निष्क्रिय लगता। यह बात सयुक्तिक नहीं जान परमेश्वरसे सृष्टिका प्रवाह सदैव जारी पड़ती कि, परमेश्वर साधारण मनुष्यकी रहेगा । ग्रीस देशके अणुसिद्धान्तवादी तरह ग्वेल खेलता है। इसके सिवा पर- ल्युसिपस् और डिमाक्रिटस्का कथन है मेश्वरकी करनीमें ऐसा क्रूरतायुक्त व्यव- कि, जगत्का कारण परमाणु हैं। ये पर- हार न होना चाहिए कि, एक बार खेल माणु कभी स्थिर नहीं रहते। गति उनका फैलाकर फिर उसे बिगाड़ डाले । महा- स्वाभाविक धर्म है और वह अनादि भारतमें भिन्न भिन्न जगह ऐसा सिद्धान्त तथा अनन्त हैं। उनके मतानुसार जगत प्रतिपादित किया है कि, प्रायः उत्पत्ति सदैव ऐसे ही उत्पन्न होता रहेगा और और संहारका क्रम किसी न किसी नियम ऐसे ही नाश होता रहेगा। परमाणुओं- और कालसे ही होता रहता है। भग- की गति बँकि कभी नष्ट नहीं होती, . वद्गीतामें यही बात एक अत्यन्त सुन्दर अतएव यह उत्पत्ति-विनाशका क्रम कभी: दृष्टान्तस वर्णित की गई है । उस रूपकर्म थम नहीं सकता। अच्छा, अब इन निरी- हमको अाजकलका विकासवादसा प्रति- श्वरवादियोंका मत छोड़कर हम इसका बिम्बित हुआ दिखाई देता है। जगत्का विचार करते हैं कि, ईश्वरका अस्तित्व उत्पत्ति-काल एक कल्पका माना गया माननेवाले भारतीय आर्य दार्शनिकोंने है। वह ब्रह्माजीका एक दिन है; और इस विषयमें क्या कहा है। उपनिषदोंमें जगत्का संहार-काल ब्रह्माजीकी एक रात ऐसा वर्णन पाता है कि "प्रात्मैव इदमन है। ऐसा कहकर गीतामें कहा है कि, आसीत् सोमन्यत बहुस्याम् प्रजायेति" अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः अर्थात "पहले केवल परब्रह्म ही था। त्यहरागमे। उसके मन में आया कि मैं अनेक होऊँ- रात्र्यागमे प्रलीयन्ते मैं प्रजा उत्पन्न करूँ।" अर्थान् निष्क्रिय तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके ॥ परमात्माको पहले इच्छा उत्पन्न हुई। जिस प्रकार, जब सुबह होनेका समय और उस इच्छाके कारण उसने जगन् आता है उस समय, धीरे धीरे अन्धकारमें उत्पन किया। वेदान्त तत्वज्ञानमें यही संसार प्रकाशमें आकर दिखाई देने लगता सिद्धान्त स्वीकार किया गया है। वेदान्त- है, उसी प्रकार सृष्टिके प्रारम्भमें अव्यक- सूचोंमें बादरायणने "लोकवस्तु लीला-से भिन्न भिन्न व्यक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। कवल्यम्" यह एक सूत्र रखा है। जैसे और सन्ध्याकालके बाद जब रात माने ६२ प्रभव