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महाभारतमीमांसा

8 महाभारतमीमांसा जो शंका उपस्थित होती है, वह यही है कि सारी सृष्टिका विचार करते हुए और परमेश्वर जड़-सृष्टि और चेतन अात्माको विवेक करते हुए दो वस्तुएँ शेष रही- कैसे उत्पन्न कर सकता है ? जड़-सृष्टि तो : मैटर अर्थात् अव्यक्त-जड़ और परमेश्वर। अविनाशी है और चेतन प्रात्मा भी अवि- अव्यक्त चूँकि परमेश्वरसे भिन्न है, इस- माशी है, जो अविनाशी है वह अनुत्पन्न लिए परमेश्वर-सम्बन्धी कल्पनामें और भी अवश्य होना चाहिए । जिसका नाश शक्तिमें परिमाण (भौतिक) और बुद्धि नहीं होता, उसकी उत्पत्ति भी नहीं हो (आध्यात्मिक) दोनों ओरसे म्यूनता सकती। ऐसी दशामें यह सम्भव नहीं आ जाती है। यही दोष कपिलकी प्रकृति कि परमेश्वर जड़ और चेतनको उत्पन्न और पुरुष, इन दो वस्तुओंके सिद्धान्तमें कर सके । और, यदि यह भी मान । भी लगता है। ऊपर जो हमने यह विधान लिया जाय कि उसने उत्पन्न किया है, बतलाया है कि, सब तत्वज्ञानोका उद्देश्य तो फिर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि एकत्व सिद्ध करनेकी ओर रहता है, सो किससे उत्पन्न किया ? इस पर कई पाश्चात्य तत्वज्ञानियोंको भी स्वीकार है। लोग उत्तर देते हैं कि शन्यसे उत्पन्न किया। 'अाजकल रसायन शास्त्र, यह मानते हुए पर छाम्दोग्य उपनिषद में यह प्रश्न है कि कि जगत्में अनेक अर्थात् सत्तरसे अधिक "जो कछ नहीं है उससं. जो कुछ है. वह । मूल तत्व हैं, यह सिद्ध करना चाहता है कैसे उत्पन्न हो सकता है ?" इसलिए कि सारे जगत्में एक ही मूलतत्व भरा पही सिद्ध होता है कि, कुछ न कुछ है। औपनिषदिक आर्य ऋषियोंने इस अव्यक्त अथवा अन्याकृत साधन, जड़- विषयमें जो कल्पना की है, वह मनुष्य- चेतनात्मक सृष्टिको उत्पन्न करनेके लिए कल्पनाके प्रति उच्च शिखर पर जा पहुँची होना चाहिए। इससे स्मृष्टिकी कल्पना : है: और जान पड़ता है कि यही कल्पना नष्ट हो जाती है और केवल बनानेकी जगत्में अन्तमें स्वीकृत होगी। वेदान्त- कल्पना शेष रह जाती है। यही मानना कर्ता ऋषियोंने ऐसा माना है कि, पड़ता है कि, जैसे कुम्हार मिट्टीका घट परमेश्वर जो सृष्टि उत्पन्न करता है, बनाता है, नवीन उत्पन्न नहीं करता, उसी वह अपनेसे ही उत्पन्न करता है । प्रकार परमेश्वर,अनादि कालसे रहनेवाला जैसे मकड़ी अपने शरीरसे जाला उत्पन्न कुछ न कुछ अव्यक्त लेकर उसकी सृष्टि करती है, उसी प्रकार परमेश्वर अपने करता है। अर्थात् यह सिद्धान्त निश्चित शरीरसे ही जगत्को उत्पन्न करके, होता है कि, ईश्वर और अव्यक्त, ये दो उसको प्रलयकालमें फिर अपनेमें ही अमूर्त वस्तुएँ अनादिसे हैं: और उनमें विलीन करता है, उपनिषदोंमें और समानताका सम्बन्ध है। परन्तु इससे । महाभारतमें भी बारम्बार यही बत- परमेश्वर-सम्बन्धी कर्तुमन्यथाकतुं शक्ति- लाया है कि यह जगत् परमेश्वरसे ही की कल्पनामें बाधा आ जाती है। प्लेटो- 'उत्पन्न होता है, परमेश्वरमें ही रहता है निजम् अथवा प्लेटोके तत्वज्ञानमें जो मृल और उसीमें लयको प्राप्त होता है । इस कठिनाई उत्पन्न हुई, वह यही है क्योंकि सिद्धान्तको वेदान्तशास्त्रका अभिन्न एक ही वस्तुका स्थापित करना सब निमित्तोपादान सिद्धान्त कहते है। तत्वज्ञानोंका उद्देश्य रहता है। प्लेटोके इसका तात्पर्य यह है कि जैसे घटका तत्वज्ञानसे यह एकत्व सिद्ध न हो सका। निमित्त कारण कुम्हार है और उपादान