पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५०५

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ॐ तत्वज्ञान । ®. मानने लगे हैं कि, पाश्चात्योने जिन अनेक और प्रत्याहारवाद हज़ारों वर्ष पहले ढूँढ़ मूलतत्वोंकी खोज की है, उन सबका लय निकाला था; और यही सिद्धान्त महा एक आकाश-सत्वमें ही, अथवा ईथर भारतमें जगह जगह प्रतिपादित किया नामके तत्वमें ही, होता है। गया है। ____यह प्रायः सम्भव है कि जिस रीति- पाँच इन्द्रियाँ प्रत्येक मनुष्यकी से और जिस कारण आजकल पाश्चा- कल्पनाम श्रा था- कल्पनामें आ सकती हैं। इन पाँच स्य तत्ववेत्ता एक तत्व मानने लगे हैं. इन्द्रियोंसे भी पाँच महाभतोंकी कल्पना- उसी रीतिसे और उसी कारणसे भारती- का उत्पन्न होना स्वाभाविक बात है: आर्योंने भी विचार किया होगा, और क्योंकि प्रत्येक महाभूतमें एक एक गुण इसी लिए उन्होंने यह पाँचवाँ आकाश- ऐसा है कि, प्रत्येक भिन्न भिन्न इन्द्रिय तत्व माना होगा। अर्वाचीन तत्ववेत्ताओं- उस गुण पर प्रभाव करती है। इससे का जो यह सिद्धान्त है कि, सारो सृष्टि अवश्य ही यह अनुमान निकलता है कि, एक ईश्वरसे उत्क्रांति या विकासवादकी पाँच इन्द्रियोंके अनुसार पाँच तत्व होंगे। रीतिसे उत्पन्न हुई है, सो यह सिद्धान्त श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका, बहुत प्राचीन कालमें भारती आर्योने हुँढ़ ये पाँच इन्द्रियाँ मनुष्यकी देहमें है; और निकाला था। यह बात प्रत्यक्ष अनुभव- शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, ये पाँच की भी है कि, दृढ़ पढ़ार्थ उष्णतासे द्रव उनके गुण भी हैं । इन गुणोंके अनुसार अर्थात् पतले बन जाते हैं: और पतले ही प्रत्येक तत्वमें धर्म है । पृथ्वीका धर्मगन्धः पदार्थ अधिक उप्णतासे वायुरूप बन जलका धर्म रस, जो जिह्वासे चखा जाता जाते हैं-अर्थात् पृथ्वी तत्व जलरूप था है; अग्निका धर्मरूप, जो दृष्टिसे दिखाई देता और जल वायुरूप था। ऐसी दशामें वायु हैं, और वायुका धर्म स्पर्श, जो त्वचासे भी किसी न किसी दूसरे मूलतत्वसे ग्रहण होता है । अष, शब्द अथवा श्रोत्रसे निकला हुआ होना चाहिए । भारतवर्षके ग्रहणा होनेवाला विशिष्ट धर्म जिसका वेदान्ततत्वज्ञानी केवल अपनी बुद्धिमत्ता- है, वह पाँचवाँ तत्व भी चाहिए । इस- के वैभवसे उस जगह पहले ही पहुँचे थे, : लिए उन्होंने निश्चित किया कि वह तत्व जहाँ कि वर्तमान पाश्चात्य रसायनतत्व- आकाश है। पाँच तत्व, पाँच इन्द्रियाँ वेत्ता भाज पहुँच रहे हैं । और, उन्होंने और पाँच गुण-यह परम्परा तो ठीक यह सिद्धान्त बाँधा कि, सारी सृष्टि एक लग गई । उसमें भी भारती आर्योंने यह ही मूल-तत्वसे, अर्थात् आकाशसे, उत्पन्न एक विशेषता देखी कि, भिन्न भिन्न हुई है। अन्तमें उन्होंने यह भी प्रतिपादन तत्वोंमें एककी अपेक्षा अधिक गुण बढ़ते किया कि, यह आकाश तत्व भी परब्रह्मसे हुए परिमाणसे हैं । अर्थात् पृथ्वी-तत्व निकला है। उपनिषदोंमें यह स्पष्ट बत- में पाँची गुण हैं । यह अनुमानकी बात है खाया गया है कि, परमात्मासे आकाश कि पृथ्वीसे शब्द सुनाई देता है। पृथ्वी- निकला; भाकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, में स्पर्श भी है, रूप भी है, और रस भी अग्निसे जल और जलसे पृथ्वी उत्पन्न हुई। है; इससे उन्होंने यह सिद्धान्त बाँधा कि, उनका यह भी मत है कि इन तत्वोका जिस एक तस्वसे दूसरा तत्व निकला, इसके विरुद्ध क्रमसे, लय होगा। मतलब उस तत्वके गुण दूसरे तत्वमें मौजूद हैं। वह है कि, भारती पायौंने विकासवाद और इसके सिवा उस तत्वका स्वतंत्र