पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/४९७

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ॐ धर्म । ४६६ - कल्पनाएँ रूद थीं, उस समय पाप-पुण्य- मृत्युलोकमें किये हुए यशों में जो प्राहु- का, आत्माका, और भावी सुख-दुःखका, तियाँ दी जाती हैं वे स्वर्गमें देवताओको सम्बन्ध लोगोंके मन पर पूर्णतया प्रति- प्राप्त होती हैं और पीनेके लिए उन्हें अमृत विम्बित था: इस कारण पापसे परावृत्त मिलता है)। परन्तु यह ऋभुलोक उस वर्ग- होनेके लिए लोगोंको अतिशय उत्तेजन से भी ऊपर है। जो प्रात्माएं अथवा मिलता रहा होगा। धर्मका, कर्मका और मनुष्य वर्गमें गये हैं, उन्हें खाने-पीनेके जावके संसारित्वका भारती प्रायौँका लिए कुछ भी नहीं मिलता। उन्हें भूख. सिद्धान्त, इस दृष्टिसे, विशेष आदर- प्यास नहीं लगती। परन्तु यह भी ध्यान रणीय है। देनेकी बात है कि यदि वे अमृत पी लेंगे ___ नीचेके अवतरणों में विस्तारके साथ तो अमर हो जायेंगे। फिर वे नीचे न देख पड़ेगा कि महाभारत कालमें स्वर्गकी गिरेंगे। कल्पान्तमें भी उनका परावर्तन कैसी कल्पना थी और अन्य श्रेष्ठ लोको- नहीं होता।" (जान पड़ता है कि अन्य देव- की कैसी थी। वनपर्वके २६. वें अध्याय- ताओंका परावर्तन होता होगा।) देवता में स्वर्गके गुण-दोषोंका वर्णन एक स्वर्गीय भी इन लोकोंकी अभिलाषा करते हैं। देव-दृतने ही किया है । "स्वर्ग ऊर्ध्व-भागों- परन्तु वह अतिसिद्धिका फल है : विषय- में है और वह ब्रह्म-प्राप्तिका मार्ग है। मुखमें फंसे हुए लोगोंको वह मिलना वहाँ विमान उड़ा करते हैं। जिन्होंने असम्भव है। ऐसे नेतीस देवता हैं जिनके तप अथवा महायज्ञ नहीं किये हैं, ऐसे लोकोंकी प्राप्ति दान देनेसे होती है। अब, असत्यवादी नास्तिक वहाँ नहीं जा सकते। स्वर्गमें दोष भी हैं। पहला यह कि वहाँ सत्यनिष्ठ, शान्त, जितेन्द्रिय और संग्राममें : कर्मके फलोंका उपभोग होता है, दूसरे काम आये हुए शर ही वहाँ पहुँचते हैं। वहाँ कर्म नहीं किये जा सकते । अर्थात्, पुण्य- पर विश्वदेव, महर्षि, गन्धर्व और अप्स- की पूँजी चुकते ही पतन हो जाता है। राएँ रहती है। तेतीस हज़ार योजन ऊँचे। दूसरा दोष यह है कि वहाँवालोंको प्रस- मेरु पर्वत पर नन्दन आदि पवित्र वन हैं। न्तोष-दूसरोंका उज्वल ऐश्वर्य देखकर वहाँ क्षुधा, तृष्णा, ग्लानि, शीत, उष्ण और मत्सर-होता है। तीसरे जिस पुरुषका भीतिनहीं हैं: वीभत्स अथवा अशुभ भी कुछ पतन होनेवाला होता है, उसका शान नष्ट नहीं है। वहाँ सुगन्धित वायु और मनोहर होने लगता है, उससे मलका सम्पर्क होने शब्द हैं: शोक, जरा, प्रायास अथवा लगता है और उसकी मालाएँ कुम्हलाने विलापका बहाँ भय नहीं है। लोगोंके लगती हैं: उस समय उसे डर लगता है। शरीर वहाँ तेजोमय रहते हैं, माता-पिता- ब्रह्मलोक तकके समग्र लोकोंमें ये दोष हैं। से निर्मित नहीं होते। वहाँ पर पसीना वहाँ पर केवल यही गुण है कि शुभ कमौके अथवा मल-मूत्र नहीं है, वहाँ तो दिव्य संस्कारोंसे वहाँवालोको पतन होने पर गुण-सम्पन्न लोक एक पर एक है । ऋभु- मनुष्य जन्म प्राप्त होता है और उन्हें वहाँ नामक दूसरे देवता वहाँ हैं। उनका लोक पर सुख मिलता है। यदि उन्हें फिर भी स्वयं-प्रकाश है । वहाँ स्त्रियोंका ताप अथवा ज्ञान न हुआ तो फिर वे अवश्य अधो- मत्सर नहीं है। आहुतियों पर उनकी गतिमे जाते हैं।" उपजीविका अवलम्बित नहीं है, वे अमृत- जब पूछा गया कि स्वर्गसे भी अधिक पान भी नहीं करतं (यह कल्पना है कि श्रेष्ठ कौनसा लोक है, तो देवदूत बोला-