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महाभारतमीमांसा

8 महाभारतमीमांसा धान्यकी आहुतियोंसे हो करना चाहिए। इसी प्रकारका नियम था। महाभारत में शान्तिपर्वके २६६ वें अध्यायमें विचलका भिन्न भिन्न आश्रमोंका कर्तव्य बतलाया आख्यान है। उसमें कहा गया है कि एक गया है-अर्थात् बाल्यावस्थामें ब्रह्मचर्य, अवसर पर यक्षमें छिन्न भिन्न किया हुआ युवावस्था में गार्हस्थ्य, बुढ़ापेमें पान- वृषभका शरीर देखकर विचक्नुको बहुत प्रस्थ और अन्त में संन्यास । ब्रह्मचर्यका बुरा मालुम हुआ। उसने कहा-"अबसं मुख्य लक्षण यह था कि गुरु-गृहमें रहकर समस्त गायोंका कल्याण हो।" तभीसं ब्रह्मचर्यका पालन और विद्याध्ययन किया गवालम्भ बन्द हो गया। धर्मात्मा मनुः ! जाय । गार्हस्थ्यका लक्षण विवाह करना, ने कहा है कि किसी कर्म में हिंसाका अतिथिकी पूजा और अग्निकी सेवा करना सम्पर्क न हो, और यज्ञमें अन्नकी ही तथा स्वयं उद्योगसे अपनी जीविका पाहतियाँ दी जायँ । यक्ष-स्तम्भके लिए चलाना था। बुढ़ापा पाने पर घरबार मनुष्य जो माँस खाते हैं, उसे कुछ लोग पुत्रको सौपकर वन जानेके लिए पान- प्रशास्त्र नहीं मानते; परन्तु यह धर्म प्रस्थ आश्रम था। इसमें जटा धारण कर, प्रशस्त नहीं है । सुरा, मद्य, मत्स्य, और उपवास, तप और चान्द्रायण व्रत आदि मांस भक्षण करनेको गति धूर्त लोगोंने , करने पड़ते थे और जङ्गलके कन्द-मूल-फल चलाई है। वेदोंमें ऐसा करनेकी आज्ञा एकत्र कर अथवा उञ्छ-वृत्तिसे अर्थात् नहीं है ।श्रीविष्णु ही जब कि सब यशोके खेतमें पड़े हुए अन्नके दाने चुनकर उदर- अन्तर्गत हैं, तब पायस, पुष्प और वेदोम निर्वाह करना पड़ता था। चौथे श्राश्रम जो यज्ञीय वृक्ष कहे गये हैं, उनकी समिधा- अर्थात संन्यासमें जटा और शिखाका त्याग के द्वारा ही याग करना चाहिए।" सारांश करके. स्त्रीका त्याग करके, भिक्षा माँगकर यह कि समग्र जनसमूहमें, स्वासकर उदरनिर्वाह करके श्रात्म-चिन्तन करते विष्णुकी भक्तिका अवलम्ब करनेवाले हुए इधर उधर भ्रमण करना पड़ता था। लोगोंमें, मांस भक्षण करनेका महाभारत- इस अवस्थामें देहावसानतक रहना होता कालमें निषेध माना जाता था। यही नहीं, : था। इसका लक्षण त्रिदगड था। इसके बल्कि यक्ष-याग आदिमें भी हिंसाका सिवा, महाभारतके समयमें प्रत्याश्रमी स्याग करके केवल धान्य, समिधा और अर्थात् संन्यासके भी आगेके, सब पायसकी आहुतियाँ दी जाती थीं। नियमोस रहित. परमहंस रूपमें रहनेकी आश्रम-धर्म। चाल थी । धर्मका ऐसा अभिप्राय है कि इन सब आश्रमों में, सबका पोषक गृहला- भारती-धर्मके मुख्य अंगोंमें चार श्रम ही प्रधान है। आश्रम और चार वर्ष प्राचीन कालसे चले आते हैं। इस विषयका विस्तृत अतिथि-पूजा। वर्णन पहले हो चुका है । यहाँ आश्रमों, अतिथिकी पूजा करने और अतिथि- का ऊल्लेख कुछ अधिक किया जाता है। को भोजन देनेके सम्बन्धमें महाभारत- ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और कालके सनातन धर्ममें, बड़ा जोर दिया संन्यास इन चार आश्रमोका अवलम्बन गया है । धर्मकी यह माशा है कि जो प्रत्येक मनुष्यको, विशेषकर त्रैवर्णिकोका कोई अतिथि प्राव, उसका सत्कार कर अवश्य करना चाहिए । भारती-कालम उसे भोजन देना प्रत्येक ग्रहब श्रीर बान-