® साहित्य और शास्त्र । धर्मशास्त्र। वक्ता कहा है। इससे मालूम होता है कि आवश्यकता नहीं। यह समृचेका समूचा न्यायशास्त्र (लासिक) के साथ ही वक्तृत्व- जनक-सुलभा-संवाद पढ़ने लायक है। शाल (रहेटारिक) भी महाभारत कालमें प्रस्तु: वक्तृत्वशास्त्रके एवजम अलकार- प्रचलित रहा होगा। श्रोताके मन पर शास्त्र उत्पन्न हो जानसे महाभारतके अपने भाषणसे पूर्ण परिणाम करनेकी बादवाले साहित्यमें ऐसे संवाद नहीं इच्छा हो, तो वक्ताके लिए रहेटारिक यानी मिलते जैसा कि सुलभा-जनक-संवाद वक्तत्वशास्त्र अवश्य सिद्ध रहना चाहिए। है, या आत्मा-सम्बन्धी जैसे प्रवचन उप- प्राचीन कालमें, भिन्न भिन्न धर्मोके वाद- निषदोंमें भी है। विवादमें, हेतुविद्या तथा वक्तत्वशास्त्र दोनोंका ही उपयोग होता था। यह कहनेकी जरूरत नहीं कि एकके बोल धर्मकामार्थमाक्षेषु यथावत्कृतनिश्चयः । चुकने पर, दूसरेका और अधिक प्रभाव- । तथा भुवनकोशस्य सर्वस्यास्य महामतिः॥ शाली भाषण करना, वाद-विवादमें बहुत: यह नारदका और भी वर्णन है। इससे ही उपयोगी हुआ करता है। और,भारती- आन पड़ता है कि धर्मशास्त्र, कामशाल, कालमें प्राचीन राजाओंको तत्त्वज्ञान विषय अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र, ये चार शास्त्र पर ऐसे वाद-विवाद प्रत्यक्ष सुननेका अवश्य ही रहे होंगे। स्वयं महाभारतको खूब शौक था। इस प्रकारकी रुचि यूना- धर्मशास्त्र और कामशास्त्र संज्ञा दी गई नियों में भी थी। और इस ढङ्गके, प्लेटोके है। महाभारतमें धर्मशास्त्रका उल्लेख कई लिखे हुए, उसीके संवाद अस्तित्व में हैं बार हुआ है। हम अन्यत्र कहीं कह चुके जोकि अबतक संसार भरके मनुष्योंको है कि सौतिने महाभारतको मुख्यतः धर्म- श्रानन्द दे रहे हैं। इस कारण वक्तृत्व-शास्त्र बनाया है। महाभारतमें नीतिशास्त्र- शास्त्रका उगम जिस प्रकार यूनानम हुआ, का भा उल्लख, का भी उल्लेख है। इस बातका निश्चय उसी प्रकार हिन्दुस्थानमें भी महाभारत- नहीं हो सकता कि यह नीतिशास्त्र किस कालमें हुआ था। परन्तु फिर यह शास्त्र प्रकारका था। तथापि वह राजनीति पनपा नहीं। इसके एवज़में अलङ्कार-शास्त्र और व्यवहारनीति दोनोंके आधार पर उत्पन्न हुआ जिसने संस्कृतकी गद्य-पद्य-रहा होगा। अर्थशास्त्रको वार्ताशास्त्र भी रचनामें एक प्रकारकी कृत्रिमता उत्पन्न कहा गया है और मोक्षशास्त्रकी संज्ञा कर दी। वक्तृत्वशास्त्र महाभारत-कालमें आन्वीक्षिकी है। (सभा और शान्तिपर्व अवश्य रहा होगा, इसका साक्षी महा ०५६) एक स्थान पर मानव धर्मशाख- भारतका जनक-सुलभा-संवाद है। यह का उल्लेख है और एक स्थल पर राज- संवाद कुछ कुछ प्लेटोके संवादकी भाँति धर्मोका भी उल्लेख हुआ है। महाभारतमें है, जिसमें यह देख पड़ता है कि एक अनेक स्थलों पर यह बात कही गई है कि वका दूसरे वक्तासे बहुत ही बढ़िया समग्र नीतिधर्म मुख्यतः शुक और वृह- भाषण कर रहा है। इस संवादमें स्पतिने कहे हैं । शान्तिपर्षके प्रारम्भमें सुलभाने अपने उत्तरके प्रारम्भमें वाक्य ही कहा है कि बृहस्पतिने एक लक्ष कैसा होना चाहिए और कौन कौनसे श्लोकोंका नीतिशास्त्र बनाया और उश- उसके गुण-दोष हैं, इस विषय में विवरण नसने उसे लघु किया । इसके प्रागं किया है। यहाँ उसका अवतरण देनेकी : शान्तिपत्रके वे अध्यायमै राजशाख-
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