पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/४५८

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महाभारतमीमांसा

४३० & महाभारतमीमांसा - - पाया है। पश्चिम समुद्रमें राहुकी कल्पना क्यों की यथा हिमवतः पाश्च पृष्ठं चन्द्रमसो यथा। गई है। यह तो निश्चयपूर्वक कहा जा न राष्टपूर्व मनुजैः न च तनास्ति तावता ॥ सकता है कि चन्द्र-ग्रहण और सूर्य- (शांतिपर्व २०३) ग्रहणकी ठीक कल्पना महाभारतके इस श्लोकार्धमें कहा है कि चन्द्रका समय हो गई थी। क्योंकि शान्ति पर्वमें पृष्ठ नहीं देख पड़ता, इसलिए उसके आत्माके स्वरूपका वर्णन करते हुए बड़ी अस्तित्वसे इन्कार नहीं किया जा सकता। बढ़िया रीतिसे कहा है कि राहु राक्षस ऐसा ही दृष्टान्त आत्माके अस्तित्व नहीं, निरी छाया है; और वह छाया | सम्बन्धमें दिया गया है । इससे 'चन्द्रका आकाशमें नहीं. सिर्फ सूर्य-चन्द्र पर देख एक ही ओर हमें देख पड़ता है। यह बात, पड़ती है। अन्यत्र यह बात लिखी जा | चन्द्रका वारंवार चिन्ताके साथ निरी- चुकी है, यानी तत्त्वज्ञानके विचारमें, क्षण करके भारती पार्यों द्वारा निश्चित शान्तिपर्वके २०३२ अध्यायमें, यह विषय की हुई देख पड़ती है । हालके पाश्चात्य ज्यातिषशास्त्रने भी इस सिद्धान्तका मान्य ऊपरी विवेचनसे पाठकोंका पता लग कर लिया है । भिन्न भिन्न सत्ताईस गया होगा कि भारती कालमें भारती नक्षत्रोंके सिवा और नक्षत्रोंको भी भारती आर्योंका ज्योतिर्विषयक ज्ञान कैसा आर्योने देखा था और उनके भिन्न भिन्न था और वह किस प्रकार बढ़ता गया नाम रखे थे। सप्तर्षिका उल्लेख विशेष होगा । यह ज्ञान, मुख्य करके यज्ञके रूपसे करना चाहिए । आकाशकी ओर सम्बन्धमें सूर्य-चन्द्रकी गति, महीने देखनेवाले किसी मनुष्यके मन पर, उत्तर और वर्षका मेल मिलानेके लिए, उत्पन्न ध्रुवके इर्द गिर्द घूमनेवाले इन सात हुआ और उसमें फल-ज्योतिषके शुभा- | तारोंके समूहका परिणाम हुए बिना नहीं शुभ योगोंकी दृष्टिसे उन्नति होती गई। रहता । तदनुसार, भारती आर्योंने अपने केवल ज्योतिर्विषयक शोध करनेकी प्राचीन सप्त ऋषियोंके साथ इन सात इच्छा भले ही न रही हो, तथापि इन नक्षत्रोंका मेल मिला दिया तो इसमें कारणोंसे भारती आर्योने महाभारत-काल आश्चर्य नहीं । परन्तु उन्होंने जो यह तक ज्योतिष-ज्ञानमें बहुत कुछ उन्नति कल्पना की थी कि ये सप्तर्षि उत्तरमें हैं, कर ली थी। शकयवन अथवा बैक्ट्रियन | और इसी प्रकार पूर्व, दक्षिण और यूनानियोंने आगे चलकर हिन्दुस्थान पर पश्चिममें भी भिन्न भिन्न सप्तर्षि हैं, सो अाक्रमण करके मुद्दततक इस देशमें यह बात कुछ अजीब देख पड़ती (शां० ५० राज्य किया। उस समय उनकी राजधानी अ०२०८) । यह प्रकट है कि दक्षिण ओरके उज्जैनमें थी । सन् ईसवीके श्रारम्भके लग- काल्पनिक सप्तर्षियोंका दर्शन भारती भग भारती ज्योतिष अथवा यवन ज्योतिष- आर्योंको कभी नहीं हो सकता । तथापि की सहायता प्राप्त करके आजकलके दक्षिणकी और जो एक तेजस्वी तारा देख सिद्धान्तादि ज्योतिषकी वृद्धि हुई । यह पड़ता है और कुछ दिन दिखाई देकर डूब नहीं कि प्रत्यक्ष ज्योतिष विषयक जिझा-जाता है, उस तारेको महाभारत-कालमें सासे आकाशके ग्रहों और नक्षत्रोंकी अगस्ति ऋषिका नाम दिया गया था। चौकस दृष्टिसे छानबीन करने की उमङ्ग अस्तु; महाभारत-कालमें आकाशके ग्रहों भारती आर्योको न थी। | अषका नक्षत्रोंका निरीक्षण करनेके लिए