ॐ महाभारतमीमांसा कालमें भारती पार्योको इस बातका महाभारत-कालमें पूर्ण हो गई थी, इसमें मालूम रहना सम्भव ही नहीं कि पृथ्वी- आश्चर्य नहीं । इन चार बड़े युगोंके नाम की कील, सूर्यके आसपास घूमनेकी कृत, त्रेता, द्वापर और कलि निश्चित हुए सतहकी ओर कुछ अंशोंमें झुकी हुई है। थे। ब्राह्मण-कालमें भी इनका चलन था। उन्हें यह कल्पना भी न थी कि पृथ्वी तब, इसमें अचरज नहीं कि महाभारत- सूर्यके इर्द गिर्द घूमती है। उन्हें यह भी कालमें यह कल्पना परिपूर्ण हो गई। मालूम न था कि पृथ्वी अपने ही चारों भिन्न भिन्न युगोंकी कल्पना सभी प्राचीन ओर घूमती है । सन्ध्या समय सूर्य लोगोंमें थी । इसी तरह वह भारती पश्चिममें अस्त होकर प्रातःकाल पूर्वकी प्राोंमें भी थी। यह कल्पना भी सार्व. ओर कैसे उदित होता है, इसकी उन्होंने , त्रिक है कि पहला युग अच्छा होता है: अद्भुत कल्पना की है। वे पृथ्वीको चौरस और फिर उत्तरोत्तर युगोंमें बुरा समय या चपटी समझते थे, इसलिए ऐसी ही पाता है। ऐतरेय ब्राह्मणमें लिखा है- कल्पना कर लेना सम्भव है। कलिः शयानाभवति सजिहानस्तु द्वापर । अस्तं प्राप्य ततः सन्ध्यामतिक्रम्य दिवाकरः उत्तिष्ठंत्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् । उदीची भजते काष्ठां दिवमेष विभावसुः॥ इन चारों युगोंका एक चतुर्युग अथवा स मेरुं अनुवृत्तःसन् पुनर्गच्छति पाण्डव । महायुग मान लिया गया है । इन चतु- प्राङ्मुखः सविता देवः सर्वभूतहितेरतः॥ : र्यगोका उल्लेख भगवद्गीतामें भी है। वन पर्वके १६३वें अध्यायमें इस प्रकार चतुर्युगसहस्रान्तमहर्यत् ब्रह्मणोविदुः । वर्णन है। सूर्य उत्तर दिशामें जाकर मेरुकी रात्रि युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥ प्रदक्षिणा कर फिर पूर्वमें उदित होता है। यह श्लोक प्रसिद्ध है और इससे इसी प्रकार चन्द्र भी मेरुकी प्रदक्षिणा , कभी कभी चतुर्युगको ही सिर्फ युग करके, नक्षत्रोंमें होकर, पूर्वमें आता है। कहा जाता था । महाभारतमें वन पर्वके दक्षिणायन, उत्तरायण और इनके व अध्यायमें कलि, द्वापर, त्रेता और मध्यविन्दुका ज्ञान पूर्णतया हो गया था कृत चारों युगोंकी वर्ष-संख्या एक हजार, और वर्षको अवधि भी भारतो-कालमें दो हजार, नीन हजार और चार हजार ज्ञात हो चुकी थी। इस वर्ष में बारह वर्ष दी है और प्रत्येक युगके लिए सन्ध्या चान्द्र महीने और कुछ ऊपर दिन होते और सन्ध्यांश एक, दो, तीन और चार थे। इसलिए पाँच वर्षाका युग मानकर शतक दिये हैं। अर्थात् चतुर्युगोंकी वर्ष- उसमें दो महीने अधिक मिला देनेकी संख्या बारह हजार वर्ष होती है। इन बारह रीति महाभारतमें वर्णित है। यह पहले हजारोंका चतुर्युग अथवा महायुग या लिखा ही जा चुका है । इन युगोंके पाँच । केवल युग होता था: उसके हजार युगका वर्ष भिन्न भिन्न नामोसे वेदाङ्ग-ज्योतिष ब्रह्मदेवका एक दिन होता था। महा- और वेदोंमें कथित हैं । महाभारतमें दो भारत-कालमें ऐसी ही कल्पना थी। एक स्थानों पर वे नाम संवत्सर, परि- एषा द्वादशसाहस्री युगाख्या परिकीर्तिता। वत्सर और इदावत्सर इत्यादि उल्लिखित । एतत्सहस्रपर्यन्तमहो ब्राह्ममुदाहृतम् ॥ हैं। एक स्थान पर पाँचों पाण्डवोंको पञ्च (वन पर्व अ० १८८) संवत्सरोंकी उपमा दी गई है। इन पाँच इन बारह सहस्रोंकी संज्ञा युग है: वर्षोंके युगकी अपेक्षा बड़े युगकी कल्पना ऐसे ऐसे हजार युगोमें ब्रह्माका एक दिन
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महाभारतमीमांसा