- ज्योतिर्घिषयक ज्ञान । *
प्रस्तु; नक्षत्रोंके देवता अलग अलग माने षष्ठीको उसने तारकासुरका पराभव गये थे। यह विश्वास था कि उन देव- किया। परन्तु यह नहीं बतलाया गया कि ताओके अनुसार फल होता है।ज्योतिष- ये घटनाएँ किस महीने और पतमें हुई। के इसी सिद्धान्तके अनुसार, महाभारतके यह बड़े आश्चर्यकी बात है। आगे इस यमके समय.सौतिने अनेक प्रशभ चिह्न विषयका उल्लेख होगा । यह कहनेकी बर्सन किये।सौतिने यह दिखलानेका अवश्यकता नहीं कि पत दो थे। एक प्रयत किया है कि प्राण और क्षत्रियके शुक्ल अथवा सूदी और दसरा कृष्ण अभिमानी नक्षत्रों पर कर ग्रहोकी दृष्टि अथवा बदी। शुक्ल पक्षको पहला और आई हुई है। इसका विवेचन पहले कृष्ण पक्षको दसग मानने की प्रथा महा- दुधा ही है। प्रस्तु: स्पष्ट है कि महा- भारत-कालमें रही होगी। यह प्रथा भारतके समय समस्त भारती-ज्योतिष यूनान और अन्य देशांकी गतिके विरुद्ध नक्षत्र-घटित था । महाभारतके बाद थी, इस कारण यूनानी इतिहास-प्रणे- नये वैक्ट्रियन ग्रीक लोगोंकी सहायतासे ताओंका ध्यान इस ओर सहज ही जो सिद्धान्त-ज्योतिष बना, उसमें नक्षत्र पहुंच गया । सिकन्दरके समय हिन्दु- पीछे पड़े और राशि तथा लग्नकी ही ' स्थानमें जो काल-गणना प्रचलित थी, प्रधानता हुई । वही रवाज अबतक चल : उसका वर्णन करते हुए इतिहास-लेखक रहा है। नक्षत्रोंका भी कुछ उपयोग इस कर्टियस रूफसने कहा है कि-"यहाँके समय होता है। परन्तु इस बातकी जाँच : लोग प्रत्येक महीनेके, पन्द्रह पन्द्रह नहीं की जाती कि नक्षत्रोंके देवता कौन : दिनके, दो पक्ष मानते हैं। तथापि समग्र हैं। और कहाँतक कहा जाय, आजकल वर्षकी गणनामें फर्क नहीं होता । (अर्थात् ज्योतिषियोंतकको भी बहुधा इसका ज्ञान । एक वर्ष ३६६ दिनोंका माना जाता नहीं रहता। है)। परन्तु और बहुतेरे लोग जिस महाभारत-कालमें नक्षत्रोंके अनन्तर तरह चन्द्र के पूर्ण होनेकी तिथिमे गणना दिनका महत्त्व तिथिके नाते बहुत कुछ प्रारम्भ करते हैं, उस तरह भिन्न भिन्न था। तिथिका अर्थ है पक्ष भरके दिनोंकी महीनोंको नहीं जोड़ते । जिस समय संख्या । समग्र तिथियों में पञ्चमी, दशमी चन्द्र तुरन्त ही उगने लगता है, उसो और पौर्णिमा शुभ मानी गई हैं और समयसे यहाँवाले गणनाका प्रारम्भ इन्हें पूर्णा कहा गया है ।युधिष्ठिरके जन्म- , करते हैं।" इससे सिद्ध है कि सिकन्दरके विषयमें 'तिथौ पूर्णेऽतिपूजिते' का उम्मेख समय-महाभारत-कालमे-अन्य देशो- हो ही चुका है। महाभारतमें कोई की तरह महीने पौर्णिमान्त न थे, किन्तु समाचार कहते समय जितना उपयोग आजकलकी भाँति अमान्त थे। नक्षत्रोका किया गया है, उतना तिथियोंका। किन्तु यह नहीं माना जा सकता कि नहीं पाया जाता । फिर भी कुछ स्थलों पर : सर्वत्र ऐसी ही स्थिति थी। पौर्णिमान्त तिथियोंका उल्लेख मिलता है । यह वर्णित महीनेकी रीति भारती-कालमें, वैदिक है कि विराट नगरमें गो-ग्रहणके लिए कालकी ही भाँति, कहीं कहीं प्रचलित सुशर्मा तो सप्तमीको गया और कौरव' थी । वनपर्वके १६२ वें अध्यायमें कुबेर, गये अष्टमीको । स्कन्दको देव-सेनाका युधिष्ठिरसे कहते हैं-“यहाँपर तुम कृष्ण- माधिपत्य पञ्चमीके दिन दिया गया और पक्ष भर रहो।" इस पर टीकाकारने सूब