® ज्योतिर्विषयक ज्ञान । * - प्राकाशमें चली गई । वह सात मस्तकों- कृत्तिकाएं ही थीं। ग्राह्मण-ग्रन्थों में भो वाला नक्षम अग्निदैवत है और आजकल कृत्तिका ही प्रारम्भमें है। महाभारतके माकाशमे चमक रहा है। समझमें नहीं अनुशासन पर्वके ६४ व अध्याय में समस्त पाता कि इस कथाका सम्बन्ध अगली नक्षत्रोंकी सूची देकर बतलाया है कि पिछली कथाके साथ कैसा और क्या है। हाँ, प्रत्येक नक्षत्र पर दान करनेसे भिन्न भिन्न आजकल उपलब्ध होनेवाली गर्गसंहिता- प्रकारका क्या पुण्य मिलता है। इस में भी देख पड़ता है कि, ज्योतिषशास्त्रके सूची में भी प्रारम्भमें कृत्तिकाएँ ही हैं। माथ स्कन्द देवताका सम्बन्ध था। इस सात नक्षत्रोंकी एक पंक्ति बनाकर सब ग्रन्थमें शिव अंर स्कन्दके सम्भाषण- नक्षत्रांकी फेहरिस्त यहाँ दी जाती है:- रूपसे समस्त ज्योतिपकी जानकारी दी १ कृत्तिका १५ अनुराधा गई है। तात्पर्य यह जान पड़ता है कि २ रोहिणी २६ ज्येष्टा प्राचीन कालमें नक्षत्रोंके प्रारम्भमे रोहिणी ३ मृगशिर १७ मृल नक्षत्र था: फिर वह संपातके पीछे हट ४ श्रार्द्रा १८ पूर्वाषाढ़ा जानेके कारण विरुद्ध होने लगा और ५ पुनर्वसु १६ उत्तराषाढ़ा काल-गणनामें गड़बड़ होने लगी: अतएव ६ पुष्य २० अभिजित एक नक्षत्रको पीछे हटाकर कृत्तिका ७ आश्लेषा २१ श्रवण नक्षत्रसे नक्षत्रोंकी गणना होने लगी। - मघा २२ धनिष्ठा महाभारतमें "धनिष्टादिस्तदा कालः" यह पूर्वा २३ शतभिषक् भी उल्लेख है और कहा गया है कि १० उत्तरा २४ पूर्वाभाद्रपदा यही कृत्तिकादि गणना है । पहले ११ हस्त २५ उत्तराभाद्रपदा रोहिणी आदि गणना थी, अब अश्विनी १२ चित्रा २६ रेवती आदि गणना है। इनके बीचके श्रवण : १३ स्वाती २७ अश्विनी नक्षत्र पर उत्तरायण होनेका भी : १४ विशाखा २८ भरणी उल्लेख महाभारतमें है । अनुस्मृति , बिलकुल पूर्व कालमें प्रारम्भ मृग- (अश्वमेधपर्व) में कहा है-"श्रवणादीनि शीर्षसे होता था। फिर जब रोहिणीसे ऋक्षाणि ऋतवः शिषिगदयः।” दीक्षित- शुरु हुआ तब अवश्य ही शतभिषक का कथन है कि यह वेदाङ्गज्योतिषके। नक्षत्र पर कालारम्भ होता था। अब अनन्तरकी अर्थात् (ईसवी सन्के पहले कृत्तिकासे प्रारम्भ हुश्रा नब धनिष्ठादि- १४००के अनन्तरकी) और ईसवी सन्के काल हो गया। यह बात पाठकोंके ध्यान- पहले ४०० के लगभगकी स्थिति है। में आ जायगी । अाजकल महाभारत- इसका उल्लेख किसी अन्य स्थानमें किया कालकी यह गणना छूट गई है, अश्विनी- ही गया है। लोकमान्य तिलकने सिद्ध से नक्षत्रका प्रारम्भ होने लगा है और किया है कि वैदिक-कालके पहले मृग- कालारम्भ (वसन्तारम्भ ) अभिजित शीर्ष में नक्षत्रका प्रारम्भ होता था । नक्षत्रसे होता है । महाभारत-कालके अन- अस्तु: इसका मर्म अगले विवेचनसे न्तरके इस समयमें अश्विन्यादि गणना समझमें श्रावेगा। शुरू हुई और उसका मेल, वृषभ इत्यादि भारती कालके प्रारम्भसे लेकर महा-बारह राशियोंके चन्द्र के साथ मिलाया भारतकाल पर्यन्त नक्षत्रोंके प्रारम्भमें गया । सन् ईसवीके श्रारम्भसे लेकर
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