- महाभारतके कर्ता है
- कारण, सनातन धर्मके एक विशिष्ट भाग सारांश, ये दोनों नये धर्म सब प्रकारसे पर तो बहुत ही जोरका हमला हुआ था। सनातन-धर्मके मतोंके विरुद्ध थे और चातुर्वर्ण्यकी संस्था सनातन धर्मका एक उन्होंने उस समयके लोगोंमें निरीश्वरवाद प्रधान अङ्ग है। बौद्ध धर्मने, और जैन-तथा निरात्मवाद प्रचलित कर दिया था। धर्मने भी, इस व्यवस्थाका त्याग कर दिया। शकके पहले तीसरी शताब्दी में हिन्दु- सब जातियों में बौद्ध संन्यासी होमे लगे स्थानकी जो धार्मिक अवस्था थी उसका और सब लोग एकत्र भोजन करने लगे। वर्णन ऊपर किया गया है। उससे यह काश्यप ब्राह्मण और उप्पली नाई दोनों बात मालूम हो जायगी कि सनातन-धर्म बौद्ध भिक्षु होकर सर्व साधारणके पर बौद्ध और जैन-धौंके कैसे जोरदार आदर-पात्र समझे जाने लगे। चातुर्वर्ण्य- हमले हो रहे थे। उस समय अशोककी की प्राचीन संस्थाको बनाये रखकर, राज-सत्ताके कारण बौद्ध-धर्मकी अभी मोच-धर्ममें सब लोगोंको समान अधि- पूरी पूरी विजय नहीं हुई थी और यदि कार देनेकी, श्रीकृष्णको प्रचलित की हुई, हुई भी हो तो उसका केवल प्रारम्भ ही व्यवस्था बिगड़ गई और बौद्ध और जैन हुश्रा था । परन्तु सनातन-धर्मकी अन्त:- उपासकोंने चातुर्वर्ण्य-धर्मका त्याग सब स्थिति उन हमलोंको सहनेके लिये उस बातोसे कर दिया। इसी प्रकार श्राश्रम- समय समर्थ न थी। हमारे प्राचीन समा- व्यवस्था भी बिगड़ गई और समाज- तन-धर्ममें भी उस समय अनेक मत-मता- मेंगडबडी होने लगी। पहले चतर्थाश्रम-न्तर प्रचलित हो गये थे और उनमें श्रापस का अधिकार केवल ब्राह्मणों और अन्य में कलह हो रहा था। शोके हमलोंका आर्य-वर्णोका हीथा; परन्तु बौद्ध भिक्षुत्राने प्रतिकार करनेके लिये जिस एकता और इस आश्रमका अधिकार सब लोगोंको दे मेलकी श्रावश्यकता हुश्रा करती है, वह दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि उस समय सनातन-धर्ममें बिलकुल नहीं अशिक्षित और केवल पेट पालनेवाले, थी। कुछ लोग तो विष्णुको प्रधान देवता नीच जातिके, सैकड़ों बौद्ध भिक्षु भीख मानकर पाश्च-रात्र मतके अनुयायी हो माँगते हुए इधर उधर घूमने लगे। इन गये थे: कुछ लोग शिवको प्रधान देवता नये धर्मों के अनुयायी यह मान बैठे थे कि मानकर पाशुपत-मतका अवलम्बन करने धर्मका आचरण केवल नीतिके आचरणके लग गये थे और कुछ लोग देवीको प्रधान सिवा और कुछ नहीं है । तत्त्व-विचारके | शक्ति मानकर शाक्त मनके अनुयायी हो सम्बन्धमें भी इन धर्मोंने अपना कदम गये थे। कोई सूर्यके उपासक थे, तो कोई इतना आगे बढ़ा दिया था कि लोगोंके गणपतिके और कोई स्कन्दके। इन सब मतोंमें एक तूफान सा उत्पन्न हो गया। उपासकोंमें पूरा पूराशत्रु-भाव था। इनमें न नधो में प्रकट रूपसे यह प्रतिपादन केवल देवता-सम्बन्धी.किन्त तत्व-विचारों किया जाने लगा कि परमेश्वर है ही नहीं: के सम्बन्धमें भी, बहुत बड़ा विरोध था। और कुछ नहीं तो, मनुष्यको इस बातका यज्ञयागके विषयमें भी लोगोंके विचार डग- विचार ही नहीं करना चाहिये कि पर- मगाने लग गये थे। तत्त्वज्ञानके विषयमें मेश्वर है या नहीं। उनकी प्रवृत्ति इस वेदान्त और सांख्यका झगड़ा हो रहा. सिद्धान्तको स्थापित करनेकी ओर हो गई था । सबसे बड़ी कठिनाई यह थी थी कि मनुष्य में प्रान्मा भी नहीं है। कि सनातन-धर्मके भाख ग्रन्थ पद सर्व