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महाभारतमीमांसा

३० 8 महाभारतमीमांसा ® महाभारत-कालमें दासका निश्चित- यत पाश्चात्य देशोंके दासोंकी अपेक्षा अर्थ शूद्र मालूम होता है। "गौर्वोढारं | अधिक श्रेष्ठ थी। खामीको उन्हें मारने- धावितारं तुरंगी शद्री दासं ब्राह्मणी | पीटनेका हक न था । परन्तु पाश्चात्य याचकं च"-गायका बछड़ा होगा तो देशोंमें तो उनके प्राण ले लेनेतकका भी हक उसे बोझ ही ढोना पड़ेगा, घोड़ीका था । बल्कि यह कहना झूठ न होगा कि बच्चा होगा तो उसे दौड़ना पड़ेगा, शुद्र यहाँ दास ही न थे । महाभारतमें यहाँ- स्त्रीके पुत्र हो तो दास बनना पड़ेगा तक नियम बतलाया. गया है कि घरके और ब्राह्मणीका पुत्र होगा तो उसे भीख नौकरोंको अन्न देकर फिर स्वयं भोजन हो माँगना पड़ेगा । इस श्लोकमें जिस करना चाहिए । पुराने वस्त्र शुद्रको मर्मका वर्णन है वह बड़ा ही मजेदार है। दे देनेका नियम था । इसी तरहसे अस्तु; इससे दासका अर्थ शूद्र ही मालूम पुराने जूते, छाते, परदे श्रादि दे दिये होता है और शूद्रका निश्चित काम परि- जाते थे। यह बात केवल दासके ही चर्या करना ही माना गया था । परन्तु यह लिए उपयुक्त है कि शूद्रका द्रब्य संचय नहीं था कि सभी शुद्र सेवा करते थे। करनेका अधिकार नहीं, अर्थात् उसका जैसे सभी ब्राह्मण भिक्षा नहीं माँगते थे द्रव्य मालिकका ही है । ब्राह्मणोंके पास बैसे ही सभी शद दास नहीं थे। बहतेरे शटकेबाने पर उन्हें उसका पोषण करना स्वतंत्र धंधोंमें लगकर अपना पेट भरते ही पडता था। बल्कि यहाँतक कहा गया थे और उनके पास द्रव्यका संचय भी है कि यदि वह दास बिना सन्तानके होता था। वे श्राद्धादि कर्म करनेके भी मर जाय तो उसे पिण्ड भी देना चाहिए योग्य समझे जाते थे और दान भी करते | (शां० अ० ६०)। यदि शूद्र दास न हो तो थे। परन्तु उन्हें तप करनेका अधिकार ऐसा वर्णन है कि, वह अमंत्रक पाकयज्ञ न था। सब शुद्र दास नहीं थे, परन्तु करे। अर्थात्, दास्यका स्वरूप शूद्रकी यह सच है कि सब दास शूद्र थे। सभी परिस्थितिका बिलकुल न होता था तथापि ब्राह्मण भीख नहीं माँगते थे, परन्तु सभी | दास्य दास्य ही है। सप्तर्षिकी कथा (अनु० भीख माँगनेवाले ब्राह्मण थे । अर्थात्, अ०६३) में उनका शूद्र-सेवक शपथ लेते जैसे भीख माँगने का अधिकार ब्राह्मणों- समय कहता है कि- “यदि मैंने चोरी की को ही था, वैसे ही सभी दास शुद्र होते हो तो मुझे बारबार दासका ही जन्म थे। मालूम होता है कि महाभारत-कालमें मिले ।” घरके शूद्र-सेवकों और दासों- शूद्रोंके सिवादूसरोंसे नौकरीके काम नहीं को कुछ भी वेतन नहीं दिया जाता था- लिये जाते थे। यह तो कलियुगकी भया- उन्हें अन्न-वस्त्र देना ही वेतन देना था। नक लीला है कि ब्राह्मण शद्रोका काम ऐसे शूद्र दासोंके सिवा अन्य मज़- करने लग जायें । ऐसे शद्रोकी भी हैसि- दूर और भिन्न भिन्न धन्धेवाले शिल्पी भी अवश्य रहे होंगे। मछुए, जुलाहे, बढ़ई मानुषा मानुषानेव दासभावेन भजते। आदि कारीगर भी रहे होंगे। इसका वधबंधनिरोधन कारयति दिवानिशम ॥ (शान्ति० अ० २६२-३१) । खुलासा नहीं मिलता कि इन्हें क्या वेतन इस वर्णनसे ऐमा मालूम होना है कि भारती भार्या दिया ज दिया जाता था। बहधा खेतोंके कामों में को गुलामीमे शुगणा ।। और इसी कारण उनगे ग मजदुरीका उपयोग नहीं होता था। महा- प्रयाका अन्त हो गया। भारत-कालमें खेती करनेवाले स्वयं आर्य