३५४ ॐ महाभारतमीमांसा 3- - होगी कि महाभारतके समय, अर्थात् और घुड़सवार हों, ऐसी सेना उस दिन एनानियोंकी चढ़ाई के समय, रथोसे किस प्रशस्त है जिस दिन पानी न बरसे। यह प्रकार युद्ध किया जाता था और लड़ाई- भी कहा गया है कि- में उनका कितना उपयोग होता था । यह पदातिनागबहुला प्रावृट्काले प्रशस्यते। बात उक्त वर्णनसे भी देख पड़ती है कि गुणानेता प्रसंख्याय देशकालौ प्रयोजयेत् ॥ भारती-युद्धके समयसे यूनानियोंके समय- (शान्तिपर्व अ० १००) तक रथोंकी युद्ध-पद्धतिमें बहुत अन्तर आश्चर्यकी बात है कि जलकी वृष्टि हो गया था। भारती-युद्धमें सैकड़ों रथो- होने पर भी पोरसने रथों और घुड. के एक ही स्थान पर लड़नेका वर्णन प्रायः सवारोंका उपयोग किया। महाभारतमें नहीं है। प्रत्येक रथी अलग अलग लड़ता युद्ध-शास्त्रके अनुभवके आधार पर ही था, और वह भी दूरसे। अश्वसेनाकी युद्ध-सम्बन्धी नियम बतलाये गये हैं। नाई एक ही समय दौड़कर किसी पर यहाँतक कि उस समयके नीतिशास्त्रमें भी हमला करना रथोंका उद्देश न था । युद्ध- यही नियम दिये गये है। आश्चर्य की बात के भिन्न भिन्न स्थानों पर शीघ्रतासे पहुँच- नहीं कि इन नियमोका अतिक्रम हो जाने- कर बाणोंकी वृष्टि करना ही रथका मुख्य से पोरसके रथोकी हार हुई । यह देख काम था। भारती-युद्ध कालमें भी रथके पड़ता है रथयुद्धकी पद्धति महाभारतके घार घोड़े रहते थे, परन्तु रथमें एक ही | समय बहुत कुछ बिगड़ गई थी: फिर भी धनुर्धर और एक ही सारथी रहता था। महाभारतके उक्त वाक्यसे यह बात निर्वि- यूनानियोंके वर्णनानुसार दो धनुर्धर या वाद है कि जहाँ अस्त्र-युद्ध नहीं होता दो सारथी न रहते थे। धनुर्धरकी रक्षा- वहाँ रथ, अश्व या हाथीकी सहायतासे के लिए ढालवालोको आवश्यकता न युद्ध करनेकीरीति, या अनुभवजन्य नियम, थी । युद्धके वर्णनसे मालूम होता है कि युद्ध-शास्त्रमें भली भाँति बतलाये गये थे। रथके दो चक्र-रक्षक रहते थे। रथों पर दोनों तरफसे हमला न होने पावे. इस- रथ-वर्णन । लिए रथोंके दोनों ओर पहियोंके पास रथका कुछ और भी वर्णन किया और भी दो रथ चलते थे और उनमें जो जाना चाहिए । रथमें हमेशा चार घोड़े धनुर्धर रहते थे उन्हें चक्ररक्षक कहते लगाये जाते थे; रथ अच्छी तरहसे सजाये थे।रयोंका मुख्य काम एक स्थानसे दूसरे जाते थे। इसी प्रकार घोड़े भी खूब सजाये स्थान पर आने-जानेका था, अतएव उनके जाते थे, और उनका सब साज सोना- घूमने-फिरनेके लिए खुली जगहकी बहुत चाँदी मढ़कर सुन्दर बनाया जाता था। मावश्यकता होती थी। इस कारण आन रथ पर मन्दिरके शिखरकी नाई गोल पड़ता है कि रथोंका उपयोग भारती शिखर रहता था और उस पर ध्वजा युद्ध कालमें हमलों के लिए नहीं होता था। फहराया करती थी । प्रत्येक वीरकी अपंका गर्तरहिता रथभूमिः प्रशस्यते। ध्वजा-पताकाका रङ्ग और उसके चिह्न रथाश्चबहुला सेना सुदिनेषु प्रशस्यते ॥ भिन्न रहते थे। इन चिह्नोंसे, दूरसे ही, रथ चलानेके लिए पङ्करहित, सूखी पहचान हो जाती थी कि यह वीर कौन और गर्तरहित अर्थात् जिसमें गड्ढे न हों, है। द्रोण पर्वके २३ वें अध्यायमें भिन्न ऐसी भूमि ठीक है। जिसमें बहुतसे रथ भिन्न रथो और ध्वजाओका वर्णन किया
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महाभारतमीमांसा