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- महाभारतमीमांसा (
ब्राह्मणको राजा लोग भी मान देते थे। यह उद्योगशीलता। भी नियम था कि रास्तेमें ब्राह्मण-क्षत्रिय महाभारतके समय समूची जनता- की भेंट हो जाय तो ब्राह्मणके लिए क्षत्रिय : का, किसी प्रकारसे, जगत्को निराशा- गस्ता दे दे। महाभारतमें अनेक स्थलों पर पूर्णि दृष्टिसे देखनेका स्वभाव न था। मार्मिक उल्लेख है कि किसके लिए किसे आजकलके हिन्दुस्तानी लोगोंमें जिस गस्ता देना चाहिए.-अर्थात् गस्तेसे हट प्रकार निराशवादिताका तत्त्व फैल गया जाना चाहिए । इस प्रकार, महाभारतके है, उस प्रकारका पुराने लोगोंका हाल न समय, बड़े-बूढ़ोंका आदर करनेके सम्ब- ' था । महाभारतमें अनेक स्थानों पर यह धर्म समाजका बहुत ही ध्यान था। वाद है कि मनुष्यका दैव बलवत्तर है भारतीय आर्य अपने मनोगत भावको अथवा कर्तृत्व: और इस वादका निर्णय व्यक्त करने में कुछ भी भागा-पीछान करते सदा कर्तृत्व या उद्योगके ही पक्षमें किया थे । मनमें कुछ और, मँहमें कुछ और. । हुआ मिलता है। यह प्रतिपादन किया यह उनकी स्थिति न थी । मनोभावको गया है कि दैव पङ्ग है, मनुष्यको अपने व्यक्त करनेकी रीति कई प्रकारकी थी. उद्योग पर सदा भरोसा रखना चाहिए। और तदनुसार भारती लोग अपने महाभारतके पहले पर्वके पहले अध्यायके विचारोंको प्रकट किया करते थे । क्रोधके । अन्तम अन्तमें महाभारतके सार रूपसे यही उप- प्रावेशमै दाँत पीसने, होठ चबाने या देश दिया गया है कि मनुप्यक्रो धर्म और हाथ मलने आदिका महाभाग्नमें वर्णन उसके साथ ही उद्योग पर सदादृष्टि रखनी है। इसी प्रकार आनन्दसे एक दसकी चाहिए । 'धर्म मतिर्भवतु वः सततोत्थि- ॥ पर हथली बजाना, सिंहनाद तानाम ।' में सदेव उद्योग करते हुए धर्म करना या वस्त्र उड़ाना श्रादि बातें महा. पर श्रद्धा रखनेको कहा गया है। इसी भारतमें वर्णित हैं। प्रकार ध्यान देने योग्य एक वाक्य यह भी है कि महत्त्वाकांक्षा ही सम्पत्तिकी जड़ ततः प्रहमिताः सर्व तेऽन्योन्याश्च है। 'अनिर्वेदः श्रियो मृलं लाभस्य च नलान्ददुः । सिंहनादरवं चक्रुः वामांन्या- 'शुभस्य च' (उद्योग अ० ३६) । अनुशासन दुधुवुश्च ह॥ पर्वके६अध्यायम भीष्मस यही सरल (क० प०अ०२३) प्रश्न किया गया है कि "उद्योग प्रधान है दुःश्वमें गने या क्रोध कसम खाने या देव ?" इस पर भीप्मने उद्योगके पक्षमें आदिका वर्णन महाभारतमें बगबर है। निर्णय करते हुए कुछ महत्वको बात सारांश यह कि आजकलकी परिस्थितिमें कही हैं। "देवता भी अपने कर्मसे उस जो काम कम दर्जेके लोगोंके माने जाते स्थितिमें पहुंचे हैं। जो पुरुष यह नहीं हैं, वे साहजिक रीतिसे छोटे-बड़े सभी जानता कि देना किस प्रकार चाहिए, या लोगोंके वर्णित हैं। अर्थात् स्वतन्त्र और भोगना किस प्रकार चाहिए, अथवा रद लोगोंके विचार तथा राग-द्वेष उद्योग किस तरह करना चाहिए, और जिस प्रकार तीव होते हैं और वे उन्हें जो समय पर पराक्रम करना या तपश्चर्या स्पष्ट तथा निडर भावसे व्यक्त करते हैं, करनेकी रीति नहीं जानता, उसे सम्पत्ति उसी प्रकार महाभारतके समय भारती कभी न मिलेगी । जो मनुष्य बिना लोग भी करते थे। उद्योग किये ही देवके भरोसे बैठा रहता