ॐ महाभारतमीमांसा गोवंशकी खासी वृद्धि होनेसे गौके बोलना चाहिए और न रसोईकी निन्दा दधकी कमी न थी। (वन पर्व १० करनी चाहिए। इस कारण सामाजिक अध्याय में) वर्णन है कि कलियुगमें प्रसिद्ध भोज जिनमें कि भोजन करनेवाले गौएँ नष्ट हो जानेसे भेड़, बकरियाँ दुही लोग छोटे छोटे व्याख्यान देते या भाषण जायँगी। "दुहन्ताश्चाप्यजैडकं गोषु नाम करते हैं और जो प्राचीन कालमें तथा पुरुषाः" । कुछ जानवरोंका दृध शास्त्रकी इस समय भी पाश्चात्य देशों में होते हैं- रष्टिसे निषिद्ध माना जाता था । कहा महाभारतके समय यहाँ प्रचलित नहीं गया है कि ब्राह्मणको अजा (भेड़), अश्व, देख पड़ते। यह बात सच है कि जैसे गर्दभ, उष्ट, मनुप्य (स्त्री) और हरिणीका घरके लोग एक ही चौकमें अलग अलग दूध न पीना चाहिये। इसी तरह गौके थाली आदिमें आजकल भोजन करते हैं, बचा देने पर दस दिनतक उसका दूध न वैसे पूर्व समयमें भी किया करते थे । पीना चाहिए । बासी भोजन और पुराना परन्तु युधिष्ठिर-कृत अश्वमेधके अवसर आटा तथा गन्ना, शाक, दुध और भुने पर हज़ारों ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्योंके हए सत्तसे तैयार किये हुए पदार्थ, बहुत भोजन करमेका वर्णन है। इससे यह भी दिनोंतक रखे रहे तो, उन्हें न खाना नहीं कहा जा सकता कि सामाजिक भोज चाहिए (शान्ति पर्व अध्याय ३६)। शाक-थे ही नहीं। किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि भाजीमें लहसुन-प्याजको भी वयं कहा है। ऐसे ऐसे भोजों और ज्योनारोंके अवसर पजाबियोका जोअनाचार वर्णित है उसमें | पर भी भोजन करनेवाले लोग मौनव्रतसे उनके लहसुन-प्याज़ खानेका भी वर्णन है। ही भोजन करते थे। भोजन करते समय मौन। भोजनके भिन्न भिन्न पदार्थ । समस्त भारती श्राोंका भोजन साधा- ऐसे अवसरों पर भोजनमें वही रण रीतिसे परिमित और मादा था। मामूली चीज़ नहीं रह सकतीं। तब, तरह यूनानियोंने उनके भोजनके सम्बन्धमें कुछ तरहके स्वादिष्ट पदार्थ बनत रहे होंगे। आलोचनायुक्त उल्लेख किया है । “हिन्दु- : इसके सिवा श्रीमानोंके भोजनोंमें भी भिन्न स्तानियों में भोजनका नियत समय नहीं है भिन्न स्वादिष्ट पदार्थ तैयार होते होंगे। और सारे समाजमें प्रसिद्ध भोजन भी नहीं । आश्रमवासी-पर्वमें यह वर्णन है कि- हैं ।” महाभारतके कुछ वचनोंसे यह , श्रारालिकाः सूपकारा रागखाएड. आक्षेप सञ्चा जान पड़ता है। सवेरे और : विकास्तथा । उपरतिष्ठन्त राजानं धृतराष्ट्र सन्ध्या समय भोजन न करना चाहिए, पुरा यथा ॥ यही नियम है: और कहा गया है कि श्रहो- धृतराष्ट्र राजाको, पहलेकी ही भाँति, रात्रके बीच सिर्फ दो बार भोजन करना युधिष्ठिरके यहाँ भी श्रारालिक, सूपकार चाहिए-कई मर्तबा नहीं। किन्तु भोजन और रागखाण्डविक लो करनेका कोई निश्चित समय नहीं देख बनाकर परोसते थे (आश्रमवासी पर्ष पड़ता। इसके अतिरिक्त यह भी नियम बना अ०१)। इसमें तीन तरहके रसोइये बत- दिया गया कि-"प्राङ्मुखो नित्यमश्नी- लाये गये हैं। श्रारालिक और सूपकार यात् वाग्यतोन्नमकुत्सयन् ।” (अनुशासन मीठे मीठे पदार्थ न बनाते होंगे । मीठे पर्व १०) भोजन करते समय न तो पदार्थ या तो स्वाएडवराग यारागखाण्डव
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महाभारतमीमांसा