पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२३६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२१०
महाभारतमीमांसा

१० ॐ महाभारतमीमांसा , स्वाधीनता शिष्यको न थी । यह नियम न सकते थे, इस कारण कहना चाहिये कि था कि-"गुरुसे कभी दूर न हो ।" फिर उस समय वे दोष भी न थे जो बोर्डिङ्गमें भी गुरुसे आज्ञा प्राप्त करके शिष्य अपने सैकड़ों लड़कोंके एक साथ रहनेले होते घर जा सकता होगा। अन्तिम आशा- है। अनुमानसे जान पड़ता है कि एक प्रापिके लिये दक्षिणाकी आवश्यकता गुरुके घर बहुत करके चार-पाँच विद्यार्थी थी। इस दक्षिणाकी अनेक असम्भाव्य रहा करते थे, इससे अधिक विद्यार्थी न कथाएँ महाभारतमें है। परन्तु उन वर्णनों-रहते होंगे। क्योकि साधारण रीतिसे. से जान पड़ता है कि वे बहुधा शिष्योंकी | गुरुके घर रहनेका सुभीता न होताहोगा। ऐठसे ही हुई हैं । गुरु तो दक्षिणा लेनेकी इसके सिवा यह भी सम्भव नहीं कि अनिच्छा प्रकट करते जाते थे: परन्तु गुरु-पत्नियाँ अनेक विद्यार्थियोंके लिये शिष्य ज़िद करके कहते थे कि-'बतलाइए, रसोई बनानेके झगड़ेमें पड़े । प्रत्येक आपको क्या दक्षिणा दी जाय।' ऐसा विद्वान् ब्राह्मणको अध्यापनका अधिकार अभिमानका आग्रह होने पर गुरु मन-! था, अतरव ऐसी शालाएँ अनेक होंगी मानी दक्षिणा माँग बैठते थे और फिर और इसी कारण सभीके लिये शिक्षाका उसके लिये शिष्यको चक्कर काटने पड़ते सुभीता था। थे। आदि पर्वमें उत्तङ्ककी और उद्योग प्राचीन कालमें बिना गुरुके विद्या पर्वमें गालवकी ऐसी ही कथा है। खैर, पढ़नका रवाज न रहा होगा। कमसे ये कथाएँ अपवादक हैं। शिक्षाकी समाप्ति कम लोगोंका खयाल था कि वेदविद्या पर यह गुरु-दक्षिणा भी निश्चित रहती थी तो गुरुके बिना न पढ़नी चाहिये । वन- और उतनी (दो गौ) दक्षिणा देकर शिप्य पर्वके १३८ वें अध्यायमें लिखा है कि समावर्तन-विधि करके अपने घर चला यवक्रीतने बिना गुरुके ही वेदोका अध्य- जाता और गुरुकी अनुशासे विवाह कर यन किया था, इस कारण उसे अनेक लेता था। दुःख भोगने पड़े। इससे अनुमान होता ___जान पड़ता है कि समग्र आर्य लोगों- है कि उस समय वेदोंकी पुस्तकें भी रही की शिक्षाकी यही पद्धति पूर्व समयमें होगी। क्योंकि गुरुके बिना वेदोका अध्य- प्रचलित थी। प्राचीन कालमें, पाश्चात्य यन पुस्तकोंसे ही हो सकता है। प्राचीन आर्य देशोंमें भी गुरुके घर रहकर वहीं कालमें यह धारणा थी कि सभी विद्याएँ विद्या पदनेकी पद्धति देख पड़ती है और गुरुसे पढ़ने पर ही सफल होती हैं और इसीका रूपान्तर होकर वहाँ आजकल वेदविद्याको तो गुरुसे ही पढ़नेका निश्चय बोर्डिङ्ग स्कूल होगये है। विद्या पढ़ते समय था । यह प्रकट है कि बिना गुरुके वेद- शारीरिक श्रम करने पड़ते थे, गुरुके घर विद्या पढ़ना सम्भव ही नहीं। क्योंकि मियमपूर्वक रहना पड़ता था और सब निरी पुस्तकोसे वेदोका ठीक और शुद्ध प्रकारके कठोर व्रतोंका पालन अनिवार्य उच्चारण नहीं पा सकना: कुछ तो गुरु- था। इस कारण खान-पान आदि सात्त्विक मुख होना ही चाहिये। और नपा-तुला रहता था । इन शिष्योंकी शूद्रोंको वेदविद्याका अधिकार न था, बुद्धि तीन और शरीरको रोग-रहित मान इस कारण उन्हें वेद न पढ़ाये जाते थे। लेने में कोई विघ्न नहीं। प्राचीन कालमें किन्तु यह अनुमान है कि शुद्र विद्यार्थी एक ही गुस्के पास अनेक विद्यार्थी न रह अन्य विद्याएँ सीखने के लिये आते होंगे।