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- महाभारतमीमांसा
वर्ण-व्यवस्थामें जिस प्रकार शिक्षकोंकी का काम था, उसी प्रकार विद्या समाप्त सुविधा कर दी गई थी, उसी प्रकार वर्ण- कर गुरु-गृहसे लौटना भी एक धर्म-विधि- व्यवस्था में यह भी नियम था कि त्रिवर्णके का ही कृत्य था। इसका नाम समावर्तन प्रत्येक बालकको विद्या अवश्य पढ़नी या लौटना था। गुरुकी आज्ञा मिल जाने चाहिये । आजकल हम लोग अनिवार्य पर यह समावर्तन किया जाता था । शिक्षा देनेके प्रश्न पर विचार कर रहे हैं: अर्थात् गुरु जब लड़केके 'पास' हो जानेका परन्तु प्राचीन कालमें वर्ण-व्यवस्थाने ही इसे सर्टीफ़िकेट दे दे, तब उसे छुट्टी मिलती थी हलकर दिया था। यह प्राचीन नियम था कि और अपने घर आनेका परवाना मिलता प्रत्येक ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको विद्या था। इस प्रकार समावर्तन हो जाने पर अवश्य सीखनी चाहिये। इस बातकी उसे विवाह करनेकी स्वाधीनता होती थी। सख्ती थी कि गुरुके घर जाकर त्रिवर्ण- : इसके पश्चात् वैराग्य-युक्त ब्रह्मनिष्ठ कुछ के प्रत्येक बालकको विद्याभ्यास करना ; ब्राह्मण विवाह करनेके झमेलेमें न पड़- चाहिये; और इस कामके लिये उस समय कर गुरु-गृहमें ही विद्या पढ़ने और उपनयन संस्कार धर्ममें मिलाकर प्रचलित तपश्चर्या करने के लिये रह जाते थे। ये कर दिया गया था। विद्या पढ़ने के लिये । लोग संसारी झगड़ोंमे दूर ही रहते थे। प्रत्येक बालकको गुरुके घरमें कुछ समय- . इनको नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहते थे और नक रहना पड़ता था। अब तो उपनयन । यदि ये गुरुके घर न रहें, कहीं दूसरी संस्कारका निरा संस्कार-स्वरूप रह गया जगह स्वतन्त्रतामे रहने लगे, तो भी हो है और उसका जो मुख्य काम था वह सकता था । वे जन्मभर ब्रह्म वर्यका लुप्तप्राय है । किन्तु महाभारतके समय पालन और ब्रह्मचर्यके कठोर व्रतोका यह हाल नहीं जान पड़ता। कमसे कम भी प्राचरण करते थे। इसीका नाम भारती-कालके प्रारम्भमें तो नहीं था। पहला आश्रम है । यह बात निर्विवाद है गुरु-गृहमें रहकर विद्या-सम्पादन करनेकी कि प्राचीन कालमें यह श्राश्रम प्रत्यक्ष था। प्रत्येक लड़केके लिये प्राचीन कालमें सखी अाजकल उपनयन और समावर्तन दोनों थी। हाँ, यह बात सच है कि यह शिक्षा 'फार्स'-तमाशंकी चीज़ हो गये हैं। मुख्यतः धार्मिक होती थी। किन्तु यह पुराणोंकी समझसे कलियुगमें दीर्घ काल- भी निर्विवाद है कि वेद-विद्या सिखाई तक ब्रह्मचर्य-पालन वय॑ है: सोएक दृष्टिसे जाकर अन्य विद्याएँ भी पढ़ाई जाती थीं। यह ठीक भी है । क्योंकि स्मृतियोंमें और, साधारण रूपसे, सभी तरहको असली ब्रह्मचर्यक जो नियम हैं उनका शिक्षा एक ही गुरुके घर मिल जानेका ठीक ठीक पालन आजकल हो न सकेगा प्रबन्ध था। इस प्रकारको शिक्षाके लिये और होता भी नहीं है । तथापि यह मान कमसे कम बारह वर्ष लगते थे । परन्तु लेने में कोई क्षति नहीं कि प्राचीन कालमें कुछ स्थानों पर इससे भी अधिक वर्ष महाभारतके समयतक ऐसे ब्रह्मचर्यके लगते थे और कहीं कहीं इससे कम भी। ' पालन करनेकी रीति प्रचलित थी। महा- फिर भी यह कड़ा नियम था कि जबतक भारतमें अनेक स्थानोंपर इस ब्रह्मचर्यके शिष्य अथवा लड़का विद्या पढ़ता था, तब- : नियमोंका वर्णन है । यहाँ, उनका संक्षिप्त तक उसका विवाह न होता था। गुरुके तात्पर्य दिया जाता है:- घर जाना जिस प्रकार एकधार्मिक विधि- "श्रायुका प्रथम चतुर्थांश ब्रह्मचर्य में