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- महाभारतमीमांसा
है। इस विषयका विवेचन अन्य स्थान पर रसोई बनानी चाहिये और न पशुओको होगा। इस संवादमें संन्यासके ऊपरी व्यर्थ हिंसा करनी चाहिये । दिनको, रातके लक्षण ये बतलाये गये हैं:-भगवे कपड़े, पहले और पिछले पहर वह सोवे नहीं। घटा हुआ सिर, त्रिदण्ड धारण करना सवेरे और शामके सिवा बीचमें भोजन और कमण्डलु लेना। इसके सिवा यह न करे । ऋतुकालके सिवा स्त्रीको शय्या भी कहा गया है कि संन्यासी लोग अन्य पर न बुलावे । अतिथिका सदैव खूब आश्रमोके धर्मका आचरण न करें। और सत्कार करे। दम्भसे जटा और नख यदि संन्यासी फिर गृहस्थाश्रमी हो बढ़ाकर स्वधर्मका उपदेश करनेवाले और जाय तो पतित होगा, अर्थात् आर्य लोगों- अविधिसे अग्निहोत्रका त्याग करनेवाले के समाजसे भ्रष्ट हो जायगा । उस समय पुरुषका भी गृहस्थाश्रमीकी रसोई में अंश यही धारणा थी। इस सम्बन्ध धर्मशास्त्र रहता है। ब्रह्मचारी और संन्यासी अपने और वेदान्त सूत्र में भी ऐसे ही परिणाम घर रसोई नहीं बनाते: उन लोगोंको कहे गये हैं। जिस प्रकार वर्णसङ्कर एक गृहस्थाश्रमी भोजन दे। उसे सदैव 'विघस' अति निन्द्य और भयङ्कर प्रसङ्ग माना | और 'अमृत' का भोजन करना चाहिये । जाता था, उसी प्रकार प्राश्रम-सङ्करको यज्ञके बचे हुए हाम-द्रव्यको 'अमृत' कहते भी लोग भयङ्कर समझते थे । इस सुलभा- हैं, और पोष्य वर्गके खा-पी चुकने पर जनक संवादमें इसी आश्रम-सङ्करका जो रसोई बच जाती है, उसे 'विघस' भयङ्कर पातक वर्णित है । जिस तरह कहते हैं । अर्थात्, गृहस्थाश्रमीका धर्म है नीचेवाले वर्णीका उच्च वर्णकी स्त्री ग्रहण कि यज्ञ करके ब्रह्मचारी, संन्यासी, करना निन्द्य समझा जाता था, उसी अतिथि, छोटे छोटे बच्चे, और नौकर- तरह उच्च श्राश्रमसे नीचके आश्रममें चाकर आदिको पहले थाली परोस दे. उतर आना भी निन्द्य माना जाता था। तब पीछेसे श्राप भोजन करे । इस इस कारणसे भी सनातनधर्म के संन्यास- प्रकार सब आश्रमोंका और पोष्यजनोंका का पालन करना अत्यन्त कठिन था। पोषणकर्ता होनेके कारण गृहस्थाश्रमकी योग्यता सबसे श्रेष्ठ है। गृहस्थाश्रमीको गृहस्थाश्रमका गौरव । । स्वतन्त्र व्यवसाय करके द्रव्योपार्जन द्वारा ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और अथवा राजासे याचना करके जो द्रव्य संन्यास चारों श्राश्रम यद्यपि एकसे एक मिले, उससे यज्ञ-यागादि क्रिया और अधिक श्रेष्ठ माने गये हैं, तथापि गृहस्था- कुटुम्बका पालन करना चाहिये। कुछ श्रमका गौरव सब आश्रमोसे अधिक है। लोगोंके मतसे गृहस्थाश्रममें ही रहकर शान्ति पर्वके २४३वें अध्यायमें इसका अन्ततक कर्मयोग करते जाना चाहिये, वर्णन है। गृहस्थाश्रमीको विवाह करके अर्थात् इसी प्राश्रममें उन्हें मोक्ष मिल अग्न्याधान करना चाहिये और गृहस्था- जायगा । किंबहुना, प्रत्येक आश्रमका श्रमके योग्य आचरण करना चाहिये। यथाविधि आचरण करते करते उसी जहाँतक हो सके, गृहस्थाश्रमीकी यजन, आश्रममें सद्गति मिल सकती है । इसके अध्ययन और दान इन तीन कौका ही लिये आश्रम-धर्मका यथायोग्य सेवन होना प्राचरण करना चाहिये । गृहस्थाश्रमीको चाहिये । गृहस्थाश्रमका यथाविधि सेवन कभी सिर्फ अपने ही उपयोगके लिये न तो करना बहुत कठिन है। इस प्राश्रमके जो