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महाभारतमीमांसा

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  • महाभारतमीमांसा #

गुज़र करनेके लिये ही भिक्षावृत्तिका तो उसे ग्रहण कर ले। मध्याह्न कालतक अवलम्य कर लिया करते थे। यह बात यदि कुछ भी न मिले तो ऐसे घरोंमें भिक्षा ध्यान देने योग्य है कि भिक्षा माँगनेका माँगे जहाँ सब मनुष्य भोजन कर चुके अधिकार सिर्फ संन्यासीको ही था, और हो और जहाँ रसोईघरमें धूआँ भी न किसीको न था। कुछ आलसी शुद्र भी निकलता हो। मोक्षविद् मनुष्यको ऐसी भिनु या संन्यासी बन जाते थे और जगह भिक्षा न माँगनी चाहिये जहाँ इसीसे यह आग्रह उत्पन्न हो गया होगा आदरपूर्वक सब तरहसे रसीले स्वादिष्ट कि अन्य वर्णके लोग संन्यास न लें । यह भोजन मिले। भिक्षा माँगनेको निकले तो तो निर्विवाद है कि संसारसे पराङ्मुख किसी भिक्षुकी भीखमेंसे न लें। एकान्त रहनेकी आर्योंकी प्रवृत्तिके कारण सभी स्थानमें सदा विचरे। सूने घर, जङ्गल, वोंके अनेक लोग संन्यासी हुआ करते वृक्षकी छाया या नदी किनारेका अवलम्ब थे। महाभारतके समयतक सैंकड़ों करे । गर्मियोंके मौसिममें एक स्थान पर संन्यासी वनमें रहकर तत्त्व-विवेचन किया एक ही दिन ठहरे । बरसातमें, यदि करते थे। सिकन्दर बादशाहको पञ्जाबमें आवश्यकता हो तो, एक ही जगह ठहरा अनेक निरीच्छ तत्त्ववेत्ता पुरुष मिले थे। जा सकता है । सूर्य जो मार्ग बतलावे जो कि परमहंसरूपसे जङ्गलमें रहते थे। (जहाँ रास्ता समझ पड़े) वहाँ घूमे फिर, इस बातसे सिद्ध होता है कि महाभारतके संग्रह बिलकुल न करे और मित्रोंके वर्णन काल्पनिक नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष साथ न रहे। जलमें उतरकर स्नान न करे। स्थितिके हैं। बौद्ध धर्मने तो संन्यास- | शिल्पका काम करके गुज़र न करे। आप आश्रमको अपने पन्थमें अग्र स्थान दिया ही-बिना पूछे ही-किसीको उपदेश न था और सभी वर्गों के लिये यह आश्रम करे । साथमें सामान भी न रखे । खोल दिया था। इस कारण हज़ारों शुद्र प्राणिमात्रमें समभाव रखे । पिछली बौद्ध संन्यासी-भिक्षु-बन गये और बातोंके लिये शांक न करे। केवल प्रस्तुत उन्होंने बौद्धधर्मको अवनत दशामें पहुँचायातकी भी उपेक्षा करें। इस प्रकारका जो दिया । इसका विचार आगे होगा। निराशी, निर्गुण, निरासक्त, आत्मसङ्गी संन्यास-धर्म। और तत्त्वज्ञ है वह निःसन्देह मुक्त होता है।" इत्यादि वर्णन अनुगीतामें हैं (श्राश्व० संन्यास आश्रमके उद्दिष्टके सम्बन्धमे ! अ०४६) । इस वर्णनमें संन्यास आश्रम- अर्थात् ब्रह्मनिष्ठाका व्रत योग्य रीतिसे के जो कर्तव्य सनातन धर्मने निर्दिष्ट कर जारीरहनेके लिये संन्यासाश्रमी मनुष्यको दिये हैं, उनमेंसे अधिकांशका बौद्ध संन्या- जिन जिन धर्मोंका पालन करना श्राव. सियोंने त्याग कर दिया और यह देख श्यक था, उनके सम्बन्धमें ही सूक्ष्म पड़ेगा कि कर्तव्य त्याग देनेके कारण नियम पहलेसे मौजूद थे। "उसे सब बौद्ध भिक्षुओकी आगे चलकर अव. अंशो में दयापूर्वक बर्ताव करना चाहिये, नति हो गई। सब इन्द्रियोंको कावूमें रखकर मनन- . पहली जबरदस्त भूल यह हुई कि बौद्ध शील रहना चाहिये । किसीसे बिना संन्यासी पकान्तमें रहना छोड़ सङ्घ बना- माँगे, और स्वयं रसोई बनानेके झगड़ेसे कर रहने लगे। सङ्घमें तरह तरहकी दुष्ट दूर रहकर अगर कुछ भोजन मिल जाय कल्पनाएँ प्रचलित होती हैं । उच्च-नीचका