ॐ महाभारतमीमांसा है नियम फिर सख्त हो गये, और पहलेकी | अमुक ब्राह्मण गौड़ है, कान्यकुब्ज है या तरह भिन्न भिन्न वर्णोकी स्त्रियाँ ग्रहण दाक्षिणात्य है। फिर अब महाराष्ट्र ब्राह्मणों करनेकी रीति रुक गई । महाभारतके में भी जो देशस्थ, कोङ्कणस्थ आदि भेद बादकी स्मृतियोंमें निर्बन्ध हो गया कि हो गये हैं उनका, या कान्यकुब्ज आदिके हर एक वर्णको अपने ही वर्णमें शादी- भीतरी भेदोंका, उल्लेख कहाँसे मिलेगा? ब्याह करना चाहिये, और सवर्ण स्त्रीसे क्षत्रियोंके भीतरी भेदोंका पता भी महा- उत्पन्न सन्तान ही उस वर्णकी समझी भारतसे नहीं लगता । चन्द्रवंशी अथवा जायगी । ब्राह्मणका अन्य वर्णकी स्त्री सूर्यवंशीका भेद-भाव भी व्यक्त किया हुआ ग्रहण करना बन्द हो गया और क्षत्रियने नहीं देख पड़ता। यादव, कौरव, पाञ्चाल भी अन्य वर्णकी स्त्री करना छोड़ दिया: श्रादि देश-भेद तो मिलते हैं परन्तु वे ऐसे इस कारण, भिन्न भिन्न वौके मिश्रणसे नहीं हैं कि जैसे वर्तमानकालीन क्षत्रियों- जो नित्य नई जातियाँ बनती जाती थीं के अभ्यन्तरीण भेद हैं । किंबहुना, उन से बन्द हो गई । इस वर्ण-व्यवस्थाके सबका आचार-विचार और पेशातक कारण उत्पन्न होनेवाला जातिका गर्व एक ही था: सबमें परस्पर शादी-ब्याह अन्य समाजों पर परिणाम डालने लगा: होता था । वैश्योंके अवान्तर भेद भी कहीं अर्थात अनार्य जातियों में भी जाति-भेद देख नहीं पड़ते। ये सब भीतरी भेद उत्पन्न होने लगा। हिन्दुस्तानमें प्रत्येक श्रीमच्छङ्कराचार्यके अनन्तरके है: इस जातिको ऐसा प्रतीत होता है कि हम और अनुमानके लिये स्थान भी है । बौद्ध धर्म- किसी न किसी जातिसे श्रेष्ठ हैं: और जहाँ | का उच्छंद हो चुकने पर जिस समय कहीं द्रव्य अथवा शक्तिके कारण महत्त्व | हिन्दु धर्मसमाजका पुनः सङ्गठन हुआ, प्राप्त हुना. वहाँ उक्त प्रकारका अभिमान | उस समय प्रत्येक देश और प्रत्यक भाग बढ़कर भिन्न भिन्न जातियाँ उपजने लगीं। के निवासियोको अन्य भागवालोंके खान- इस तरहसे प्रत्येक जातिमै भीतरी भेद पान और वर्णकी शुद्धताके सम्बन्ध उपत्र होने लगे और उसी छोटीसी सन्देह होगया:इस कारण प्रत्येक जातिमें सीमाके भीतर विवाहका बन्धन हो गया। भीतरी भेद सन् ८०० ईसवीके लगभग हो इसके सिवा देशभेदसे भी जातिभेद माना गये, और ब्याह-शादीके बन्धनोंसे जकड़े जाने लगा। भिन्न भिन्न देशोंमें खान-पानके, रहनेके कारण वे भेद अबतक अस्तित्व में आचारके और इतिहासके भेदके कारण हैं । सारांश यह कि आजकल कनौ- एक दूसरे पर सन्देह होने लगा। इस जिया, महाराष्ट्र, गुजराती आदि ब्राह्मणों- कारण भी भीतरी भेदोंको दृढ़ बन्धन- के, अथवा राठौड़, चन्देल, मरहठा आदि का स्वरूप मिल गया, जैसे कि आजकल क्षत्रियोंके या महेश्री, अगरवाल, महा- ब्राह्मणों में अनेक भेद हो गये हैं। मुख्य भेद राष्ट्र आदि वैश्योंके जो भेद मौजूद हैं ब्राह्मणोंके दशविध, अर्थात् पञ्चद्राविड़ उनका निर्देश महाभारतमें नहीं है। महा- और पञ्चगौड़ हैं: किन्तु महाभारतमें इन भारतमें तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य दस भेदोका नाम भी नहीं है। महाभारतमें वर्ण-भेद-रहित थे। इसी तरह सङ्कर वर्ण जहाँ कहीं ब्राह्मण का नाम आता है भी सून, मागध वगैरह एक ही थे: वहाँ कोई देश-भेद दिखलाया नहीं | उनमें किसी तरहका भीतरी भेद नहीं जाता । यह वर्णन कहीं नहीं मिलता कि देख पड़ता।
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महाभारतमीमांसा