- वर्ण-व्यवस्था ।
समय यह जाति अभेद्य न थोः अर्थात, की जाय या नहीं। इसके पश्चात् शुद्रा और लोग क्षत्रिय जातिवाले, इच्छा स्त्रीकी सन्तानका दर्जा कम माना गया और सामर्थ्य होने पर, ब्राह्मण बन सकते | और इस कारणसे और भी भिन्न भिष थे। पञ्जाबमें पार्योंकी बस्ती हो जाने पर जातियाँ उत्पन्न होगई। आर्योंकी सभ्यता जिन्होंने खेती करना शुरू कर दिया, उनकी और बुद्धिमत्ता भी शुद्रोंकी बुद्धि और रहन- आपही एक अलग जाति हो गई। वह सहनसे उच्च थी, इस कारण शूदा स्त्री- विश् या वैश्य है। पञ्जाबमें इस प्रकार भिन्न | से उत्पन्न सन्ततिको घटिया माननेका भिन्न रोज़गारोंके कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय ग्वाज निकला; तथा उग्र, पारशव श्रादि और वैश्य तीन जातियाँ हो गई । किन्तु जातियाँ बन गईं। वैश्य यदि श द्रा स्त्रीको अभीतक तीन वर्ण न थे। तीनों जातियों ग्रहण कर लेते थे तो उनकी सन्तति वैश्य के लोग आर्य ही थे और उनका वर्ण भी ही मानी जाती थी, इस कारण वैश्योंके एक ही था: अर्थात् वे गोरे थे । इनका रङ्गमें बहुत फर्क पड़ गया और वैश्य- तीनों भिन्न जातियों में परस्पर बेटीच्यव- वर्ण पीला माना गया। क्षत्रियोंके रङ्गमें हार होता था: अर्थात् बहुधा अनुलोम भी ऐसा ही फर्क पड़ता गया और रीतिसे ब्राह्मण तीनों वर्गों की बेटियाँ लेते उनकी रङ्गन लाल समझी गई । परन्तु थे और क्षत्रिय दो वर्णोकी । इसके अनन्तर इन वर्णों-रङ्गों-का यह मोटा हिसाब धीरे धीरे हिन्दुस्तानमें आर्योंकी बस्ती है। यह बात नहीं कि इसके अपवाद बढ़ने लगी और फिर चन्द्रवंशी आर्य न हो। भी आ गये; गङ्गा-यमुनाके प्रदेशमें उनके सबसे मुख्य बात यह है कि आर्य राज्य स्थापित हो गये। उस समय भार्यो- । जातिवालोंके और शद्र जातिवालोके वर्ण की समाज-व्यवस्थामें हिन्दुस्तानके मृल- (रङ्ग) और संस्कारोंमें जैसा फ़र्क था, निवासियोंकी पैठ हो गई और उनका वैसा ही फ़र्क नीतिमत्तामें भी था: और उपयोग साधारणतः सब प्रकारके दास- आर्योकी यह धारणा बहुत ही उदात्त थी। कर्ममें होने लगा: और शद्र यानी तीनों उन्होंने जेता (विजयी) होनेके कारण ही जातियोंकी शुश्रूषा करनेवाली चौथी जाति बड़प्पनको न हथिया लिया: बल्कि इसका बन गई। धीरे धीरे ऊपरकी जातिवाले कारण उनकी यह कल्पना थी कि हम शूद्रा स्त्रियोंको ग्रहण करने लगे। अब नीतिमै भी शद्रोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। और, यहींसे वर्णकी उत्पत्ति हुई। आर्य जाति- उनका आचरण भी सचमुच उसी प्रकार- वालोकारङ्ग गोरा और शूद्र जातिवालीका का था। वे आर्योको सब अच्छे गुणोंसे रङ्ग काला था। इस कारण वर्ण (रङ्ग) युक्त और अनार्योको बुरे गुणोंसे युक्त को जातिका स्वरूप प्राप्त हो गया । पुरुष समझते थे । आर्य शब्दका बहुत पाश्चात्य देशोंमें भी जिस समय आर्य कुछ अर्थ बदल गया और उसका सम्बन्ध पाश्चात्योका नीग्रो लोगोंसे सम्बन्ध हुश्रा, नीतिमत्तासे जुड़ गया । इसी कारण उस समय कलर अथवा वर्णको जातिका पार्योसे अनार्योका सम्बन्ध अनिष्ट समझा खरूप प्राप्त हो गया। इसी प्रकार वैदिक- गया। वे समझते थे कि इससे नीतिमें कालमें कृष्ण-वर्ण शू द्रोंके सम्बन्धसे वर्ण भी बट्टा लग जायगा । वर्ण-सङ्करके अर्थात् जातिका भेद उपजा। फिर यह सम्बन्धमें उन्हें जो श्राशङ्का थी, उसका झगड़ा खड़ा हुआ कि शुद्रा स्त्री ग्रहण! कारण यही था कि आर्य वर्णके लोग नीनि-