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महाभारतमीमांसा
  • महाभारतमीमांसा *

है, और इस सामर्थ्यसे आर्यवंशका नित्य- निकला हो, वह जैसा निस्तेज हो जाता सम्बन्ध है। है"-जव कि यह उपमा ली गई है, तब भारती भार्योंकी नीतिमत्ता। यही मानना चाहिये कि ब्राह्मणोंका सत्य- वादित्व भारती युद्ध के समय अथवा पाश्चात्य पार्योंसे भी बढ़कर अधिक रामायण-महाभारतके समय मान्य रहा उदात्त और उदार कल्पना भारती होगा । ब्राह्मणमें जो गुण बतलाये गये हैं आर्योकी थी। भारती श्राोंने आर्य- वे गुण ब्राह्मण-जातिके मनुष्यमें सदा वंशियोको सिर्फ इसलिये उच्च नहीं माना रहने ही चाहिएँ । भारतीय प्रायोकी था कि वे शूर होते हैं, व्यवहार करनेमें ऐसी ही धारणा थी । जातिके गुण सहज चतुर होते हैं, बुद्धिमान होते हैं और ही स्वभावसिद्ध हैं। अगर वे बदल जायँ उद्योगी होते हैं। उन्होंने आर्यवंशियोंको तो उसकी जातिमें ही फर्क पड़ गया किसी और सामर्थ्यके कारण भी उच्चता होगा। इसी धारणासे युधिष्ठिरने निश्चय नहीं दी थी-उच्चताका कारण उनकी कर दिया कि गुणसे जाति परखी जा यह कल्पना थी कि आर्य लोग नैतिक सकेगी। इसी ढंगकी एक अत्यन्त महत्त्व- सामर्थ्य में सबसे श्रृंष्ठ होते हैं। यहाँतक पूर्ण कथा उपनिषद्में है। एक ऋषिके कि, आर्य शब्दका अर्थ भी जो जाति- यहाँ सत्यकाम जाबाल उपनयन (शिक्षा वाचक था वह बदलकर श्रेष्ठ नीतिवाची प्राप्त करने के लिये गया। उस समय अर्थ हो गया: और इस अर्थमें यह शब्द गुरुन उसका नाम और जाति पूछी । पुराने ग्रन्थों में बराबर आता है । वे उसने उत्तर दिया-मेरी माँन कहा है कि अच्छे आचरणको आर्य-अाचरण और 'मुझे याद नहीं कि तेरा बाप कौन था।' बुरेको अनार्य-श्राचरण समझते थे । भग- उस समय ऋपिने कहा-"(जहाँ हजारों वद्गीतामें अनार्यजुष्ट शब्द इसी अर्थमें आदमी झूठ बोलते हैं वहाँ) तू सत्य पाया है। "स्त्रीणामार्यस्वभावानाम, बोलता है, इस कारण मझे निश्चय कि (रामायण) कहते समय वे यह मानते थे तू ब्राह्मणका ही बेटा है।" इस प्रश्नोत्तरसे कि आर्य स्त्रियाँ श्रार्य स्वभावको अर्थात् इस बातका दिग्दर्शन होता है कि प्राचीन पतिदैवत होती है। सारांश, उनका यह कालमें ब्राह्मणोंके सच बोलनेके सम्बन्धमें दृढ़ निश्चय था कि आर्यवंशवाले जैसे कितनी उदात्त कल्पना थी । यही नहीं, शूरता और बुद्धिमानीमें श्रेष्ठ है, वैसे ही बल्कि उस समय ब्राह्मण और सत्यका नीतिके कामों में भी बढ़कर हैं । युधिष्ठिर-। अत्यन्त साहचर्य समझा जाता था। में ब्राह्मणका जैसा वर्णन किया है उसकी भारती आर्य यह समझते थे कि, अपेक्षा नीतिमत्ताका अधिक उदात्त चित्र वर्णका स्वभावके साथ नित्य-सम्बन्ध नहीं खींचा जा सकेगा। भारती श्रायौँकी रहनेके कारण, यदि वर्णमें मिश्रण हो गया समझमें ब्राह्मणमें सत्य, दया, शान्ति, तो फिर स्वभावमें मिश्रण अवश्य हो जाना तप और दान आदि सद्गुण होने ही चाहिये । वर्णसङ्करका अर्थ वे खभाव- चाहिएँ । “उक्तानृतऋषिर्यथा" (रामा०) ' सङ्कर मानते थे। अनेक वर्णनोंसे उनका इस उपमासे भी ब्राह्मणोंके सत्यवादित्य- यह स्थिर मत मालूम होता है कि उनकी की कल्पना हमारे सामने खड़ी हो जाती समझसे शूद्र जातिका स्वभाव अनार्य है। "जिस ऋषिके मुखसे अनृत भाषण अर्थात् बुरा अवश्य रहना चाहिए। उन्हें