- वर्ण-व्यवस्था ।
%3- येयजामहे। यह वेदका आर्ष प्रमाण है। भाषणसे तो वर्णका अस्तित्व ही प्रकट इससे सिद्ध है कि तत्वदर्शी लोग शीलको होता है। प्रधान मानते हैं। यदि वृत्त अच्छा न हुआ युधिष्ठिरके भाषणमें वर्ण-सङ्करकी तो वर्ण बेफायदे हैं, क्योंकि आजकल तो आशङ्का पूरी तरहसे सिद्ध होती है। सङ्कर बलवान् देख पड़ता है।" इस उत्तर- हिन्दुस्थानके आर्योको वर्णसङ्करका हमेशा काबारीकीसे विचार किया जाय तो ज्ञात जो डर लगा रहता था उसका कारण होगा कि इसमें वर्णका अस्तित्व अस्वीकृत यही है। वे समझते थे कि वर्ण या वंश नहीं है। वौँका सङ्कर हो जानेके कारण ही मनुष्यके स्वभावका मुख्य स्तम्भ है। तरह तरहके लोगों में भिन्न भिन्न आचरण उनकी यह धारणा थी कि अमुक वर्ण- देख पड़ता है। इससे, पहले यदि वर्णसे वालोंका ऐसा ही स्वभाव होता है । वे । वृत्त परखा जाता था तो अब वृत्तसे वर्णको वर्णके साथ स्वभावका नित्य-साहचर्य पहचान लेना चाहिये। परानी धारणा यह मानते थे। यह सिद्धान्त कहाँतक ठीक थी कि ब्राह्मण वर्णका मनुष्य शीलवान् है, यह दूसरा विषय है। फिर भी यह अवश्य होना चाहिये: परन्तु वर्णसङ्करके बात नहीं कि ऐसीधारणा सिर्फ भारतीय कारण यह भयङ्कर गड़बड़ हो गई है कि पार्योंकी ही रही हो । आजकल यूरोपके ब्राह्मणों में भी बुरे लोग उपजने लगे हैं: आर्यनक यही समझते हैं। उनकी हद तब शीलको प्रधानता देनी चाहिये और धारणा है कि युरोपियन लोगोंकी जातिकी जिनका शील उत्तम हैं उन्हें ब्राह्मण : बराबरी अन्य खण्डोंके लोग नहीं कर समझ लेना चाहिये ।" इस तरहकी सकते । यह मान लेनेमें हानि नहीं कि युधिष्टिरकी दलील है। इससे वर्णका दक्षिण अफ्रिकामें हिन्दुस्तानियों अथवा अस्तित्व बेबुनियाद नहीं होता। युधिष्ठिरके नीग्रो लोगोंके साथ युरोपियनोका जो भाषणका मतलब यही है कि यह सारी बर्ताव है, वह इसी कारण है। जर्मन और गड़बड़ वर्ण-सङ्करके कारण हो गई : फ्रेञ्च वगैरह यह बात मानते हैं कि आर्य है। शुद्रोंमें अगर भले मनुष्य हो, शद्रोंमें ' जातिकी बराबरी और जातिवाले मनुष्य यदि शान, दान, दया, सत्य श्रादि गुण नहीं कर सकेंगे। इनमें खासकर जर्मन देख पड़ें तो यह न समझना चाहिये कि लोगोंका यही श्राक्षेप है। उन्हें अभिमान ऐसे गुण शूद जातिमें भी हो सकते हैं, है कि शूरता और बुद्धिमानी आदिमें बल्कि शुद्रों में ब्राह्मणोंका सङ्कर हो जानेके जर्मन और लोगोंसे बहत चढे बढे हैं। कारण कल शुद्रोंमें ब्राह्मण जातिके गुण अँगरेज़ आदि जो पाश्चात्य लोग अपने दीखने लगे हैं। ब्राह्मणमें यदि असत्य, आपको आर्य कहते-कहलवाते हैं, वे सम- क्रूरता और अधर्म श्रादि दुर्गुण देख झते हैं कि व्यवहारमान, और राज-काजके पड़े तो यह न समझ लो कि ब्राह्मणोंमें लिये आवश्यक गुण और व्यापारमें मुका- बुरे मनुष्य उत्पन्न हो सकते हैं, बल्कि बलाकर बाज़ी मार ले जानेकी सामर्थ्य यह समझो कि ब्राह्मणोंमें शूद्रोंका सङ्कर आर्यवंशमें अधिक है; अन्य खण्डोंके हो जानेसे ऐसे दुर्गुण देख पड़ते हैं। और अन्य जातियोंके लोग इसमें उनकी सारांश यह कि युधिष्ठिरके जवाबमें बराबरी न कर सकेंगे। तात्पर्य, पाश्चात्य वर्षका जानिनः अस्तित्व माननेसे देशो अभीतक यही धारणा है कि आर्य- इन्कार नहीं किया गया: बल्कि उसके वंशवालोंमें कुछ विशेष सामर्थ्य होती