ॐ महाभारतमीमांसा # - में लिखा है कि भरतके पुत्रने सिन्धुके उस यहाँ करने योग्य है । पहले लिखा जा ओर पुष्कलावती बसाई । तो फिर दुहासे चुका है कि यदुकी सन्ततिको अराज- भोज उत्पन्न हुए। यही लोग मध्यदेशमें भाक् (राज-काज न करने योग्य) होनेका भारती युद्ध के समय मगध और शूरसेन : जो शाप ययातिने दिया, सो पूरा हुआ। आदि देशों में प्रबल थे और इन्हींके कुल- तुर्वसुको शाप दिया था कि तेरी सन्तति में जरासन्ध, कंस आदि हुए थे । खैर, ' का उच्छेद हो जायगा । सो वह भी ऐति- सौतिका यह कथन ठीक नहीं कि तुर्घमु- हासिक रीतिमे ठीक ऊँचता है। दृह्यको से यवन उत्पन्न हुए । कदाचित् यह वात : यह शाप दिया था कि हाथी, घोड़े, बैल, हो कि अनु और आयोन (Ion) एक ही पालकी श्रादि जहाँ बिलकुल नहीं, और हो, और उनसे यवन हुए हों; और तुर्वसु-: जहाँ किश्तियों में बैठकर आना जाना पड़ता से तुर्क अथवा तृर (ईगनके शत्रु तृरान) है, वहीं तुझे रहना पड़ेगा- वगैरह म्लेच्छ जातियाँ हुई हो । परन्तु अगजा भोजशब्दस्त्वं यह बात भी गलत है। 'यवन और तत्र प्राप्स्यसि सान्वयः। म्लेच्छ जातियाँ हमारे पूर्वजोंसे ही निकली मालूम नहीं होता कि ऐसा कौन देश हैं। इस कल्पनासे ही यह धारणा हो गई है। समझमें नहीं आता कि हिन्दुस्तानका है। परन्तु ययातिकी सन्तान प्रार्य ही यह कौनसा प्रदेश है । भोजसंझक राजा होनी चाहिये और वह हिन्दुस्थानमें ही दक्षिणमें हैं, पर वहाँ यह बातें नहीं है, होनी चाहिये। इसके सिवा, ऋग्वेदका यह एक मुख्य अड़चन है। खैर, यहाँ प्रमाण इसके विपरीत है। पहले लिखा कहा गया है कि दुह्य के वंशज भोज हैं। ही जा चुका है कि ऋग्वेदके वर्णनसे अनुको शाप था कि तेरी सन्तान कम- तुर्वसुओका सृञ्जयों में शामिल होना पाया उम्र होगी और तृ अग्निकी सेवा छोड़- जाता है। अनु खुब यज्ञ किया करता था। कर नास्तिक हो जायगा। इसे ऋग्वेदके और उसकी अग्नि भी प्रसिद्ध थी। उसके वर्णनसे मिलाकर फिर यह कल्पना हो यहाँ इन्द्र और अग्निदेव नित्य आते थे। सकती है कि अनुके ही श्रागे यवन हो ऋग्वेदमें ऐसे ऐसे जो उल्लेख हैं उनका गये । हिन्दुस्तानके अनुके वंशकी स्मृति वर्णन पहले ही किया जा जुका है । इस- महाभारतके समय न रही होगी। से सिद्ध है कि अनु वैदिक धर्माभिमानी, चन्द्रवंशियोंकी भिन्नता। अग्निका उपासक और इन्द्रका भक्त था।। यद्यपि वैदिक साहित्यमें इस बातका म्लेच्छके अग्न्युपासक और इन्द्रभक्त होने- उल्लेख नहीं है कि हिन्दुस्तानमें सूर्यवंश और का दृष्टान्त कहीं नहीं मिलता। अर्थात्, चन्द्रवंश दो भिन्न भिन्न वंश थे, तथापि अनुसे म्लेच्छोंका उत्पन्न होना सम्भव , महाभारतमें इसका वर्णन स्पष्ट मिलता ही नहीं। मतलब यह है कि सौतिके है। श्रीकृष्णने सभापर्वमें कहा है-"इस समय मालूम ही न रहा होगा कि अनुका समय हिन्दुस्तानमें ऐल और ऐक्ष्वाकके वंश कौनसा है। हरिवंशमें भी इसका : वंशके १०० कुल हैं । उनमेसे ययातिके ज़िक्र नहीं । यदु और पुरुके वंशमें श्रीकृष्ण कुलमें उपजे हुए भोजवंशी राजा लोग और कौरव-पागडयोंके होनेसे उन्हीं के गुणवान् है और चारों दिशाओं में फैले हैं।" कुल आगे प्रसिद्ध हुए। ययातिने अपने यह स्पष्ट है कि पल और ऐक्ष्वाक शब्दों- बेरोको शाप दिया था। उसका उल्लेख ' से चन्द्रवंश और सूर्यवंशका बोध होना
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महाभारतमीमांसा