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महाभारतमीमांसा

ॐ महाभारतमीमांसा , भिन्न भिन्न वंशवाले ऋषियोंने जो सूक्त अथवा बराबरीको पोशाक पहनकर नहीं बनाये, वे इस मण्डलमें सम्मिलित हैं। गई । ऐसा करने में अर्जुनका यह मतलब इन अनेक सूक्तोंमें वर्णन है कि हमने यदु-जान पड़ता है कि सुभद्राको इस वेशमें तुर्षशोसे गौएँ ली, इत्यादि । इससे काण्व | देखकर द्रौपदीको अचरज होगा और ऋषि चन्द्रवंशियोंके हितचिन्तक दिखाई | उसका क्रोध भी घट जायगा। तात्पर्य देते हैं। इससे यह बात भी समझमें श्रा यह कि श्रीकृष्ण श्रादि यादव यद्यपि जायगी कि दुष्यन्त और करावका सम्बन्ध द्वारकामें राज करते थे, तथापि गोपालन क्यों है। ब्राह्मणमें भी भरतका पुरोहित ही उनका पुराना रोज़गार था । पाठकोंके कराव बतलाया गया है। यदु-तुर्वशोका ध्यानमें यह बात आ जायगी कि यादवों- अच्छा उल्लेख करनेवाले आङ्गिरस ऋषि के इस स्वभाव और व्यवसायका थोड़ा भी हैं। पहले मण्डलके श्राङ्गिरसके अनेक सा दिग्दर्शन ऋग्वेदके उल्लेखमें भी सूक्तोंमें यह बात मिलेगी। छान्दोग्य उप- मिलता है । अब अन्य चन्द्रवंशियोंके निषदमें देवकीपुत्र कृष्णको घोर पाङ्गि- विषयमें विचार होगा। रसने उपदेश किया है । इसका मेल उल्लि- पाश्चाल। खित वर्णनसे अच्छा मिलता है। मतलब हरिवंशसे पता चलता है कि पुरुकी यह कि ऋग्वेद-कालमें यदु वंशका बहुत एक दूसरी शाखाके वंशज पाञ्चाल हैं। कुछ बोलबाला हो गया था। यदु के वंशज इनका मुख्य पुरुष सृञ्जय ऋग्वेदमें यादव यमुना किनारे पर थे और उन्हींके प्रसिद्ध है। उसके वंशमें सहदेव और घंशमें आगे चलकर श्रीकृष्ण हुए। ऐसा सोमक हुए।ये दोनों भी ऋग्वेदमें प्रसिद्ध जान पड़ता है कि ये यदु-तुर्वश गौत्रोंका है। सृञ्जयकी अग्निकी, ऋग्वेदमें एक व्यवसाय करते थे। उनकी यही परम्परा जगह प्रशंसा है। इससे ज्ञात होता है कि आगे महाभारतमें भी पाई जाती है। वह बड़ा भारी यक्षकर्ता था। ब्राह्मणमें यादवोंको राज्य करनेका अधिकार न यह वर्णन है कि सोमकने राजसूय यज्ञ होनेकी धारणा इसी कारण फैली होगी। करके, पर्वत और नारदके कहनेसे, एक उनको ययातिके शाप देनेका वर्णन यह है और ही रीतिसे सोमपान किया, इसलिये तस्मादराजभाक्तात प्रजा तव भविष्यति। उसकी कीर्ति हुई । अतएव उसके वंशजों- (श्रादि० ४.) को सोमक नाम भी प्राप्त हो गया। महा- श्रीकृष्ण वसुदेवके बेटे थे, वसुदेव भारतमें पाञ्चालोंको सृञ्जय और सोमक गोकुलवासी थे, इत्यादि बातें भी प्रसिद्ध भी कहा है। ब्राह्मणमें एक स्थान पर पाश्चाल- हैं। परन्तु यादव प्रारम्भसे ही गोपका का अर्थ क्रिवि किया है (मालूम नहीं, ये व्यवसाय करते थे। इस बातका खासा कौन हैं; पर इनका उल्लेख ऋग्वेदमें है)। प्रमाण भारतके एक छोटेसे वाक्यसे सम्भव है कि पाश्चालोंमें पाँच जातियाँ मिलता है। जिस समय सुभद्रा अर्जुनके मिल गई होगी। साथ इन्द्रप्रस्थको गई, उस समय सुभद्रा- स सृञ्जयाय तुर्वशं परादाहचीवती को गोपी-वेशमें उसने द्रौपदीके पास देघवाताय शिक्षन् । (ऋ० ६.२७) भेजा । इससे दोनों बाते सध गई। एक इस ऋचासे जान पड़ता है कि तुर्वश तो उसका रूप और भी खिल उठा, दूसरे भी पाञ्चालों में मिल गये होंगे। इससे बह द्रौपदीके भाग बराबरीके नातेसे यह शहा की जा सकती है कि पाश्चाल