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  • भारतीय युद्धका समय

बन्द हो गये थे। यह तो निर्विवाद है ही: संहितामें बारह महीनोंके बारह नामोंके परन्तु यह भीमालूम होता है कि वेदांग लिवा तीन नाम सन्सर्प, मलिम्नुच और ज्योतिषके बाद भी चान्द्र वर्षका प्रचार न अंहस्पति भी दिये गये हैं। इनमेसे संसर्प रहा होगा, क्योंकि वेदांग ज्योतिष और मलिम्नुच अधिक मासोंके नाम हैं चान्द्र वर्षका उल्लेख बिलकुल नहीं है। और अंहस्पति तय मासका नाम है। इससे यह अनुमान निकलता है कि भारती अब प्रश्न यह है कि अधिक मासके नाम दो युद्ध वेदांग ज्योतिषके बहुत पहले हुश्रा। क्यों रम्बे गये ? अनुमानसे मालूम होता भारतीय युद्ध के वेदांग ज्योतिषके है कि तीन महीनोंके बाद एक अधिक बहुत पहले होनेका अनुमान निकालनेके माम होनेका वेदांग-कालीन नियम लिये कुछ कारण है जिसके बारेमें हमें ब्राह्मण-कालमें नहीं था। उस समय यह और भी विचार करना चाहिये। दीक्षित नियम रहा होगा कि पाँच वर्षोंके बाद कहते हैं कि यह जाननेके लिये कोई साधन दो महीने जोड़े जायँ, और उन्हीं दोके नहीं है कि वैदिक कालमें अधिक मास ये भिन्न भिन्न नाम होंगे। सागंश, भीष्म- कितने महीनों में रखते थे। वेदांग ज्योतिष- के वचनसे पाँच पाँच वर्षों में दो अधिक में कहा है कि ३० महीनों में अधिक मास मासका होना पाया जाता है। सिद्ध है होना चाहिये । जब वेदांग कालमें यह कि यह रीति वेदांगके पहलेकी है; अर्थात् नियम था, तब इसके सम्बन्ध वेदकालमें उसका समय सन् ईसवीके पूर्व ३१०१ भी कोई नियम अवश्य होगा। हमारा मत । वर्ष मानने में कोई हर्ज नहीं है। है कि भीष्मके उक्त वचनमें यह नियम यहाँ यह शंका होगी कि यदि पहले दिखाई पड़ता है। हमाग मत है कि पाँच चान्द्र-वर्ष मानते थे, अर्थात् लौकिक और वर्षों में एक दम दो महीने अधिक रख वैदिक व्यवहारमें चान्द्र-वर्षका उपयोग देनेकी प्रथा, भारती युद्ध के समय अर्थात होता था, तो उन महीनोंके नाम कया थे? नैत्तिरीय संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थके यदि अधिक महीने जोड़े न जायँ, तो यह समय रही होगी। इसका एक प्रमाण है। नियम भी नहीं रह सकता कि प्रत्येक पाँच वर्षाका युग बहुत प्राचीन कालसे महीनेको पौर्णिमा अमुक नक्षत्र पर ही रहे: प्रचलित है । नैत्तिरीय ब्राह्मणमें पांच अर्थात् चैत्र, वैशाख श्रादि नाम भी नहीं वर्षोके भिन्न भिन्न संवत्सर, परिवत्सर, हो सकते । कारण यह है कि ये नाम उन इदावत्सर आदि नाम पाये जाते हैं। उन महीनोंकी पौर्णिमा पर रहनेवाले ऋग्वेद संहिता-मंत्रमें भी दो नाम हैं। नक्षत्रोंके द्वारा प्राप्त हुए हैं। इसका उत्सर अर्थात् पाँच संवत्सर-युग वेदांग ज्योतिष- यह है कि पहले चैत्र, वैशाख प्रादि नामो- के पहलेका है। पाँच वर्षों में दो महीने एक का प्रचार सचमुच ही न था। संहिता- दम अधिक जोड़ देनेकी प्रथा संहिता ब्राह्मण-ग्रन्थोंमें चैत्रादि महीनोंके नाम कालमें जारी होगी। इस व्यवस्थासे ऋतुमें कहीं नहीं पाये जाते, जिससे उनका फिर कमी-बेशी होने लगी, इसलिये कुछ प्रचारमें न रहना सिद्ध होता है। फाल्गुनी वर्षों के बाद एक क्षय मास रखनेकी पद्धति पौर्णिमा इत्यादि संज्ञाका प्रचार हो जाने शुरू हुई। तात्पर्य, ब्राह्मण कालमें दो पर भी महीनोंके फाल्गुन श्रादि नामोंका अधिक महीने और एक क्षय महीना ! प्रचार होने में बहुतमा समय लग गया। रखनेकी प्रथा रही होगी । वाजसनेयि । (दीक्षित, १५ ३8) पहले महीनों के दो