चिन्तक तथा मित्र श्रीयुत दीवान बहादुर टी छाजूरामजी साहब सी० माई०० (धार-दरबारके सन् १९१२।१३ से दीवानका काम करनेवाले सजन)को समर्पण कर हम उनसे जोधपुरमें इस अभिप्रायसे मिलने गये कि हमारे हिन्दीसेवाके निश्चयके सम्बन्धमें उनकी क्या राय है। उस समय वे जोधपुरके दीवान थे। कुशल- प्रश्न होने तथा पुस्तक अर्पण करने पर हमने अपने दिलकी बात उनके सामने प्रकट की। उन्हें बड़ा सन्तोष हुभा । वे कहने लगे कि हमने समस्त महाभारतका जिस तरहसे मराठीमें प्रकाशन किया है उसी तरहसे हिन्दी में भी अवश्य कर डालें और इस कार्यके आरम्भके भागके लिए वे हमें जोधपुर दरबारसे उत्तम रीतिसे सहायता दिला देंगे। उन्होंने यह भी सूचना दी कि हम अपनी कम्पनीकी एक हिन्दी-शाला इन्दौर में स्थापित करें। इस तरहसे हमारे हृदयमें कोई ६ वर्षोंसे जमे हुए विचारको छाजूरामजी सरीखे अधिकार सम्पन्न महाशयके द्वारा प्रारम्भसे ही अच्छी सहायता मिली। उनकी आज्ञाको शिरोधार्य करके हमने शीघ्रता तथा उत्साहसे कार्यारम्भ किया। अपने ही कृत्योंके बल पर सेन्ट्रल इण्डियामें जो थोड़ेसे सत्पुरुष उन्नतिकी उच्च सीढ़ी पर बैठे हैं उनमेंसे छाजूरामजी साहब भी एक प्रधान व्यक्ति हैं । भला उनकी सूचनाको अस्वीकृत कौन करता? परन्तु मानवी इच्छा और ईश्वरीय घटनामें बड़ा अन्तर रहता है-यह अज्ञानी जीवोंके लिए अगम है। अनुभवी जनोंका कथन है कि-स्निग्धजन संवि- भक्तहि दुःखं सहाघेदनं भवति"; इसी न्यायके अनुसार हम अपनी स्थितिका वर्णन एक महाकविके निम्न श्लोकमें करेंगे:- रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजश्रीः। . इत्थं विचिंतयति कोशगते द्विरेफ हा हन्त हन्त नलिनी गज उजहार ॥ (अर्थात-कमलके कोषमें बन्द होकर भ्रमर अपने मनमें यह विचार कर रहा है कि जब रात्रि व्यतीत होगी और सबेरा होगा तब मैं दुर्भाग्यवश फँसे हुए इस कारागारसे मुक्त होकर स्वेच्छापूर्वक विहार करूँगा और अपनी मकरन्द-पानकी इच्छाको पुनः तृप्त करूँगा; वह इस तरहसे विचार कर ही रहा था कि सबेरा होने- के पहले एक उन्मत्त हाथी पाया और उसने कमलको नाभि समेत तोड़कर फेंक दिया, जिससे भ्रमर कोषमें ही निराशापूर्वक बन्द रह गया ।) इसी तरह हमारी अवस्था भी हो गई। जिस जोधपुर दरबारकं भरोसे पर हमने अपना उद्योग प्रारम्भ किया था उन्हें उन्मत्त तथा अविचारी कालने अल्पवयमें ही संसारसे अलग कर दिया और "प्रथमप्रासे मक्षिकापातः" की तरह हमारे प्रारम्भ किये हुए महत्कार्य में, आधारभूत आश्रयदाता सजनके अभावमें, पूर्ण निराशाका साम्राज्य फैल गया। .. देखिये, इस दुर्घटनाके कारण हमारी अवस्था कैसी दुःखपूर्ण और माधर्य- जनक हो गई। कहाँ तो पूनाकी चिपलूणकर-मण्डली और कहाँ जोधपुर राज. पूतानाके अधिपति महाराज ! दोनों में कितना अन्तर होने पर भी हमारा उनका संयोग होना असम्भव था। परन्तु देवयोगसे यह असम्भव बात जितनी प्राकलिक रीतिसे हो पड़ी उतनी ही आकस्मिक रोनिसे नष्ट भी हो गई। यह चिर-वियोग
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