. । किंग्स कॉलेज में बाल्डविनका Secret of Happiness 'सुखकी कुंजी' पर भाषण हुआ। असका सार 'मैन्वेस्टर गार्डियन'ने दिया था और क्रॉनिकल ने असे अद्धृत किया है । सर ऑल्फ्रेड क्रिप जैसे शस्त्रवैद्य 'सुख और जीवन साफल्य' विषय पर हर साल भाषण देनेके लिओ दान करें, यह भी अक अपूर्व वात है । भाषणमें बॉल्डविनकी चुने हुझे शब्दों के चुने हुओ वाक्योंवाली शैली छलछला रही थी । सुख पर बोलनेके बजाय असने तो भीश्वरकी तरह 'नेति नेति' कह कर काम पूरा किया । औश्वर सुख या आनंद रूप ही है, अिसलि असकी 'नेति नेति 'से व्याख्या हो तो अिसमें आश्चर्य ही क्या ? फिर भी भाषणके अन्तमें प्रगट किये गये अद्गार बहुत हृदयंगम करने योग्य हैं : "Happiness may be the echo of virtue in the soul, it is certainly a harmony in the mind. It may radiate from beg- gars and Gypsies, lords of the universe who own no service to fame and fortune. It may be the beatific vision of the holiest saints or the insight of the greatest thinkers in the art of apprehending reality." सुख हृदयमें रहनेवाले गुणोंकी प्रतिध्वनि है। यह चित्तकी सुसंवादिता तो जरूर ही है। भिखारियों और आवारागर्दीमें भी वह पाया जाता है । वे दुनियाके मालिक हैं, क्योंकि यश और सम्पत्तिकी उन्हें लालसा नहीं है। पवित्र संतोंको होनेवाले परम आनन्दके अनुभवको सुख माना जा सकता है या महाज्ञानी पुरुषोंमें तत्व आकलन करनेकी कलाकी जो अन्तर्दृष्टि होती है, कह सकते हैं। फिर भी सुखकी हमारी कल्पनाको कोसी पहुँच सकता है ? ' यद्यत्परवशं दुःखं यद्यदात्मवशं सुखम् ।। गेटेकी जन्म-शताब्दी मनाी जा रही है । अनकी अनेक सूक्तियाँ अधृत की जाती हैं। सुखकी हमारी व्याख्याके पर्यायरूपमें अन्होंने यह व्याख्या दी है "" -Everything that frees our spirit without giving us self-mastery is pernicious. जो भी चीजें आत्मविजय दिलाये बिना चित्तको निरंकुश बनाती हैं, वे निहायत नुकासनकारक हैं । गीतामें तो वचनामृत भरे पड़े हैं : 'यस्त्वात्मरतिरेव स्यात् ॥ सुखमात्यंतिकं यत्तद्' ।। और 'यं लब्ध्वा चापरं लाभ मन्यते नाधिकं ततः' ॥ छोटीसे छोटी और जड़से जड़ मनुष्य समझ जाय जैसी व्याख्या चाहिये तो यह है कि दूसरोंके सुखके लिझे जीना और दूसरोंको सुखी देखना, जिसके जैसा दूसरा कोसी सुख नहीं है । ख ४८
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