धर्म है । धोबीके किस्से परते शुद्ध निर्णय करना मुश्किल है। आजकल तो वह हमें हरगिज पसन्द नहीं होगा । जैसी आलोचना सुनकर अपनी पत्नीको छोड़ देनेवाला निर्दय और अन्यायी ही माना जायगा । लेकिन रामायणमें कविने यह । किस्सा किस खयालसे दिया है, यह मैं नहीं कह सकता । हमें अस झगड़े में पड़नेसे क्या काम ? मैं तो नहीं पडगा । रामायण जैसी पुस्तकोंको भी मैं अित तरहकी दृष्टिले नहीं पड़ता। अगर लड़कियोंके सायकी मेरी छूटसे आश्रम- वासियोंको चोट पहुंचती है, तो मेरा यही खयाल है कि मुझे वह छूट लेना बन्द कर देना चाहिये । यह छूट लेना कोी स्वतंत्र धर्म नहीं है, और न लेनेमें नीतिका भंग नहीं है । लेकिन जिस तरहकी छूट न लेनेते लड़कियों पर बुरा असर हो, तो मैं आश्रमवासियोंको समझाझं और छूट । लड़कियाँ ही मुझे न छोड़ेंगी तब मैं देख लूंगा । मैं जो छूट जिस तरह लेता हूँ झुसकी नकल तो किसीको नहीं करनी चाहिये । यह चीज स्वाभाविक हो जानी चाहिये । आजते मुझे छूट लेनी है, यह विचार करके बनावटी तौर पर कोी छूट नहीं ले सकता । और ले तो वह बुरा ही समझा जायगा । असल बात यह है कि जो विकारवश होकर निर्दोषसे निर्दोष लगनेवाली छूट भी लेता है, वह खुद गडहेमें गिरता है और दूसरेको भी गिराता है। हमारे समाजमें जब तक बी- पुरुषका सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं बन जाता, तब तक जवर सावधान होकर चलनेकी जत्ररत है । अिस मामलेमें सबके लिभे लागू होनेवाला कोभी राजमार्ग नहीं है । तुम्हारे अपने रंगढंगमें बहुत अनघड़पन भरा है । तुम्हारी स्वाभाविक निर्दोषता तुम्हें बचाती है। मगर तुम असका घमण्ड करते हो और असे हठके साथ पकड़े रहते हो, यह ठीक नहीं । जिसमें अविचार है । आज तुम्हें सिसका नुकसान मालूम नहीं होता, लेकिन किसी दिन जबर पछताना पड़ेगा । घमण्ड किसीका नहीं रहा । सभी लोकमर्यादा बुरी है, यह समझ कर समाजको आघात नहीं पहुंचाना चाहिये ।" वाको लिखा अव तो तुम छूटोगी । मगर मुझसे मिलना न होगा, अिसका दुःख तुम्हें होगा। मुझे तो है ही। तुम्हारे लिओ भी छूट लेनेकी जीमें आती है। फिर भी यह शोभा नहीं देगा, यह तुम भी मानोगी। हमारा जीवन त्यागते ही बना है, अिसलिमे शान्ति रखना। मुझे बराबर लिखती रहो।" आज सुबह फिर निर्णय पर बातें हुआँ । जयकर, सपू और चिन्तामणिकी रायों पर चर्चा हुी । बापू कहने लगे -"यह आशा रख २१-८-३२ सकते हैं कि जयकर सपूते यहाँ अलग हो जायेंगे।" वल्लभभाी "बहुत आशा रखने जैसी बात नहीं है।" 66
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