. तो बंञवाले आग पर पानी छिड़कते ही नहीं, क्या यह जानते हो ? वे आसपासके हिस्सेको ही सँभालते हैं। और भितना करें, तो वे कर्मकुशल यानी योगी माने जाते हैं। हमने अपना कर्तव्य पालन कर दिया, तो सारी आग बुझा देनेके बराबर ही है । दीखनेमें भले ही बुझी हुी न लगे, मगर असे बुझी हुश्री ही समझना चाहिये । सत्यकी खोज करते करते मुझे तो और कुछ मिला नहीं, और आगे भी मिलता दोखता नहीं । अगर यह ठीक न हो तो सत्यका आचरण और सत्यका आग्रह असंभव हो जायगा । आग्रह असीका हो सकता है, जो शक्य है । चंद्रमा परके पहाड़ों पर हवाका आग्रह रखें, तो शेखचिल्लियोंमें शुमार हों, क्योंकि वह असंभव है। यही बात हमारे कर्तव्यके बारेमें है । और सच पूछा जाय तो सबको अपना अपना कर्तव्य मालूम होता है । क्यों कि असके लिअ दूर नजर डालनेकी जरूरत नहीं होती । नाककी नोक तक ही नजर डालना होता है। पैरोंके सामने पड़ा हुआ कचरा दूर करना है । यह दूर होता जायगा वैसे वैसे दूसरा नजर आता जायगा और निकलता रहेगा । भले ही जीवनके अन्तमें वह खत्म हुआ न लगे । जीवनका अन्त कहाँ है ? शरीरका अन्त है, असकी क्या चिन्ता ? और जीवनका अन्त नहीं है तो फिर कचरेका खात्मा न दिखाी देने पर थकावट मालूम न होनी चाहिये । दर्जीका लड़का जब तक जीता है सीता रहता है। हाथमें सुी हो और आखिरी सँभाभी आ जाय, तो असे कर्तव्यपरायण समझना चाहिये ।" अिसी तरहके विषयोंकी चर्चा करनेवाला दूसरा पत्र पालकृष्णके नाम ." मायाको शंकराचार्य किस रूपमें मानते थे, यह मैं निश्चयपूर्वक नहीं जानता । मैं यह मानता हूँ कि जिस रूपमें हम जगत्को मानते हैं और देखते हैं, वह आभास है, हमारी कल्पना है । मगर जगत् अपने रूपमें तो है ही । वह कैसा है यह हम नहीं जानते । ब्रह्म है, यह कहनेके साथ ही साय असका नेति रूपमें वर्णन करते हैं । जगत् भी ब्रह्म है । वह प्रझसे अलग नहीं है । दम जो जुदापन देखते हैं, वह आभास मान है । "मेरी गय यह है कि हमारी सुम्रका पैमाना छोटा बड़ा हो सकता है। अमलमें हर दे अपने सारे धर्मकि साय अत्पन्न होती है। हम नहीं जानते वे क्या है । अन्हें जाननेकी जरूरत भी नहीं है। "कालके विभाग मनुष्यके किये हु है और वे कालचक्रमें रजनसे भी छोटे हैं। हमारी गिनतीके करोड़ों हिमालय जमा करें, तो भी ये कालचक्रसे छोटे है । अिसलिये मनुष्य दायमें जो कुछ है, वह नहीं के बराबर है । भले दी पर गिी में मस्त दे ।
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