रोका जाय । अिन बकरोंकी हालत तो अछूतोंसे भी दयाजनक है। वे सींग' भी नहीं मार सकते । अनमें कोभी आम्बेडकर भी पैदा नहीं हो सकता । भिस हिंसाके खिलाफ आत्मा कम नहीं जल शुठती है । बकरोंका भोग चहानेके बजाय शेरका भोग क्यों नहीं चाते ? ?" अिस कदमका क्या असर होगा, जिसके बारेमें सुबह बातें हुी । मैंने "जिसके अनर्थ तो भयंकर होंगे। हमारे यहाँ अिसकी अन्धी भोर समझ नकलें होंगी। अमरीकामें लोग कहेंगे कि अिसने अपवास करके छुटकारा पाया ।" बापू कहने लगे "यह मैं जानता हूँ। अमरीकामें तो सब कुछ, माना ही नायगा और चाहे जो मनवानेवाले अंग्रेज वहाँ मौजूद ही हैं ! जेलसे छूटनेफे लिऔ अपवास किया, जितना ही नहीं, बहुतेरे कहेंगे कि जिस आदमीने अब दिवाला निकाल दिया है। जिसका अध्यात्म चलता नहीं, भिसलिओ अिसने अब आत्महत्या की है । धूर्त दिवालिये अिसी तरह तो जहर खाते हैं । और हमारे यहाँ अन्ध अनुकरण होगा और भयंकर अनर्थ होगा । सरकार या तो मुझे छोड़ देगी और बाहर मरने देगी या भीतर भी मरने दे सकती है । मेस्विनीको मरने ही जो दिया था ! हमारे अपने आदमी भी आलोचना करेंगे। जवाहरलालको यह कदम हरगिज अच्छा नहीं लगेगा । वे कहेंगे हमें असा धर्म नहीं चाहिये । मगर अिससे क्या ? महान शस्त्र काममें लेनेवाले अनर्थोंसे या दूसरे विचारोंसे डरते नहीं हैं।" आज सप्रूकी राय आयी । अन्हें वैधानिक प्रदनके सामने भिस सवालका महत्व तुच्छ लगता है । अिस निर्णयके देनेमें अन्हें साफ १९-८-३२ नीयत और श्रीमानदारीकी कोशिश दिखामी देती है । बापूने जरा सी आलोचना की समका काम मुंजेसे अलटा है । जातीय मांग पूरी हो जाय तो मुंजेको विधानकी परवाह नहीं, सपूको विधान मिल जाय तो कुछ भी हो जाय शुसकी परवाह नहीं ।" हाँ, वल्लभभाभीके दुःखकी हद नहीं है । वे कहने लगे कि " मुझे नरम दलवालोंके बारेमें सदासे असा ही महसूस होता रहा है । ये लोग किस वक्त क्या करेंगे, कह ही नहीं सकते । समझदारीका ठेका अिन्हीं लोगोंका है । आज जब देशमें और किसीको अंग्रेजोंकी नेकनीयत दीखती नहीं है, तब अिन लोगोंको नेक नीयत दीखती है । जिसका कारण है । अभी जिन्हें अपना खोया हुआ स्वाभिमान वापस प्राप्त करना है, नहीं तो फिर अनके खड़े रहनेको जगह ही कहाँ रही ?" मैंने कहा "ये लोग तो बापूके कदमकी निन्दा करनेमें सरकारका साथ देंगे।" वल्लभभाी मगर करें क्या ? बापूकी रीत बेढंगी है । बापूने अिस कदमके बारेमें -
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