अन्हीं पर जोर देना चाहिये । नारणदासभाभी पर और बोझा बढ़ गया । जो आदमी अच्छा काम देता है अससे ज्यादा चाहे बिना बापूका जी नहीं भरता । आश्रम अक महान पाठशाला है। असमें शिक्षाका कोभी खास समय ही नहीं है, बल्कि सारा समय शिक्षाका है। हरओक व्यक्ति जो आत्मदर्शन- सत्यदर्शन की भावनासे आश्रममें रहता है, वह शिक्षक भी है और विद्यार्थी भी है। जिस बातमें वह होशियार है असका वह शिक्षक है और जो भुसे सीखना है असमें विद्यार्थी है ।" " बड़ीसे बड़ी शिक्षा चारित्र्य शिक्षा है। ज्यों ज्यों हम यम नियमोंके पालनमें आगे बढ़ते जायेंगे, त्यों त्यों हमारी विद्या --- सत्यदर्शनकी शक्तिबहती ही जायगी।"
भाभूने पूछा था प्रातःस्मरामि वाला श्लोक हम बोलते हैं। यह क्या दम्भ नहीं है। हमारा दिनभरका कामकाज तो यह समझकर होता है कि शरीर हम हैं । उन्हें लिखा "हमारी प्रार्थनाका पहला लोक मुझे भी खटकता था। मगर गहरे जाने पर देखा कि समझके साथ अिस श्लोकका रटना ठीक है। हमारी बुद्धि जरूर कहती है कि हम यह मिट्टीका पुतला शरीर नहीं है, बल्कि भिसमें रहनेवाले साक्षी हैं । श्लोकोंमें अिसी साक्षीका वर्णन है। और फिर अपासक प्रतिज्ञा करता है कि मैं वह साक्षी -मझ हूँ।' जैसी प्रतिज्ञा वे मनुष्य ही कर सकते हैं जो वैसा बननेकी रोज कोशिश करते हों और मिट्टीके पिण्डका सम्बन्ध कम करते जाते हों । मुर्छा, भय और रागद्वेष हो असके बजाय वे हर वक्त ब्रह्मके गुणोंको याद करके रागद्वैपसे छूटने की कोशिश करते हैं। जैसा करते करते मनुग्य जिसका ध्यान करता है अन्तमें वैसा ही बन जाता है। अिसलि नम्रता किन्तु दृढ़ताके साथ हम रोज भले ही भिस श्लोकको याद करें और हर काममें अस प्रतिज्ञाको साक्षीके तौर पर समझें ।" अक दूसरे पत्रमें : "अक असा वर्ग है कि जिसमें हम बहुतसे आदमी आ जाते हैं। वे पढ़ पढ़कर विचार करनेकी शक्ति कुण्ठितं कर लेते हैं । सुनका पहना बन्द करके अन्होंने जो कुछ पहले पढ़ लिया है असीमेंसे विचार करनेके लिओ अन्हें सुझाना चाहिये ।" कन्हैयालालको लिखा "परमात्माका अर्थ सत्य किया जाय तो प्रत्यक्ष दर्शन सम्भव है । ध्रुव वगैराके दर्शन करनेकी बात अक्षरशः मानना नहीं है | कवियोंने जो वर्णन किया है वह अक तरहका रूपक है ।" " मन, वचन और कायासे सत्य आचरण शाश्वत अत्तम यज्ञ है। आज भुसका मूर्तरूप परमार्थकी वृत्तिसे चरखा चलाना है ।" "धर्मका सच्चा अपाय हर तरहसे यम- नियमोंका पालन है।" 2.00